________________ 390) [च्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बकुश। जो वस्त्र-पात्रादि उपकरणों को विभूषित-शृगारित करने के स्वभाववाला हो, वह उपकरणबकुश होता है तथा जो हाथ-पैर, मुंह, नख आदि शरीर के अंगोपांगों को सुशोभित किया करता है, वह शरीरबकुश होता है। दोनों प्रकार के बकुशों के पांच भेद हैं--(१) आभोगवकुश-- साधुओं के लिए शरीर, उपकरण आदि को सुशोभित करना अयोग्य है, यों जानते हुए भी जो दोष लगाता है / (2) अनाभोगबकुश-जो न जानते हुए दोष लगाता हो, वह अनाभोगबकुश है / (3) मूल और उत्तर गुणों में प्रकट रूप से दोष लगाए, वह असंवृतबकुश है। (4) जो छिपकर या गुप्त रूप से दोष लगाता है, वह संवृतबकुश है / (5) जो हाथ मुह धोता है, आँखों में अंजन लगाता है, वह यथासूक्ष्मबकुश है। ___ कुशील : लक्षण और प्रकार---जिसका शील अर्थात् चारित्र कुत्सित हो, वह कुशील कहलाता है / इसके मुख्य दो भेद हैं--प्रतिसेवना-कुशील और कषाय-कुशील / सेवना का अर्थ है- सम्यक आराधना, उसका प्रतिपक्ष है-प्रतिसेवना / उसके कारण जो साधक कुशोल हो, वह प्रतिसेवना. कुशील है / कषायों के कारण जिसका शील (चारित्र) कुत्सित हो गया हो, वह कषायकुशील श्रमण है। जो साधक ज्ञान, दर्शन, चारित्र और लिंग को लेकर आजीविका करता हो, वह क्रमशः ज्ञानप्रतिसेवना-कुशोल, दर्शनप्रतिसेवना-कुशील, चारित्रप्रतिसेवना-कुशील एवं लिंगप्रतिसेवना-कुशील कहलाता है / यह तपस्वी है, क्रियापात्र हैं' इत्यादि प्रकार की प्रशंसा से प्रसन्न होता है तथा तपस्या आदि के फल की इच्छा करता है और देवादि-पद की वांछा करता है वह यथासूक्ष्मप्रतिसे कुशील निर्गन्थ है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र को लेकर जो क्रोध, मान आदि कषायों के उदय से ऊँचनीच परिणाम लाए और ज्ञानादि में दोष लगाए अथवा ज्ञानादि का क्रोधादि कषायों में उपयोग करे वह क्रमशः ज्ञानकषायकुशील, दर्शनकषायकुशील एवं चारित्रकषायकुशील है / जो कषायपूर्वक वेष-परिवर्तन करता है, वह लिगकषायकुशील है। जो कषायवश किसी को शाप देता है, वह भी चारित्रकषायकुशील है तथा जो मन से क्रोधादि कषाय का सेवन करता है, वह यथासूक्ष्मकषायकुशील है। निग्रन्थ : प्रकार और स्वरूप-निग्रंथ के पांच प्रकार हैं-(१) प्रथम-समय-निग्रन्थ-दसवें गुणस्थान से प्रागे 11 वें उपशान्त मोह अथवा 12 वें क्षीणमोहगुणस्थान के काल (जो कि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है) के प्रथम समय में वर्तमान हो। (2) अप्रथम-समय-निग्रन्थ--११ वें या 12 वें मुणस्थान में जिसे दो समय से अधिक हो गया हो, वह। (3) चरम-समय-निर्ग्रन्थ-जिसकी छदमस्थता केवल एक समय की बाकी रही हो / (4) अचरम-समय-निर्ग्रन्थ-जिसकी छद्मस्थता दो समय से अधिक बाकी रही हो / (5) यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ--जो सामान्य निर्ग्रन्थ, प्रथम प्रादि समय की विवक्षा से भिन्न हो। स्नातक : पांच प्रकार और स्वरूप-~-पूर्णतया शुद्ध, अखण्ड एवं सुगन्धित चावल के समान शुद्ध अखण्ड चारित्रवाले निर्गन्थ स्नातक कहलाते हैं। स्नातक के पांच प्रकार हैं--(१) अच्छविछवि अर्थात् शरीर, इस दृष्टि से अच्छवि का अर्थ होता है-योग के निरोध के कारण जिसमें छवि (शरीर) भाव बिलकुल न हो वह / अथवा घातिकर्मचतुष्टयक्षपण के बाद कोई क्षपण शेष न रहा हो, वह अक्षपी होता है / (2) अशबल-एकान्तविशुद्धचारित्र वाला, अर्थात् —जिसमें अतिचाररूपी पंक बिलकुल न हो। (3) अकम्माश-घातिकर्मों से रहित / (4) संशुद्ध-विशुद्ध ज्ञान-दर्शनधारक, केवलज्ञान-दर्शनधारक अर्हन, जिन, केवली आदि और (5) अपरिस्रावी-कर्मबन्ध के प्रवाह से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org