________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ख्यात-गुण हैं / (13) उनसे निष्कम्प असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यात-गुणे हैं और (14) उनसे निष्कम्प असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से असंख्यात-गुणे हैं। विवेचन-पुद्गलों के अल्पबहुत्व की भीमांसा-परमाणु-पुद्गल तथा संख्यात-प्रदेशी, असंख्याल-प्रदेशी और अनन्त-प्रदेशी स्कन्धों की सकम्पता और अकम्पता को लेकर द्रव्यार्थ से अल्पबहुत्व के आठ पद होते हैं / इसी प्रकार प्रदेशार्थ से भी पाठ पद होते हैं, किन्तु द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ से उभयपक्ष में चौदह पद होते हैं, क्योंकि सकम्प और निष्कम्प परमाणु-पुद्गलों के द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता इन दो पदों के स्थान में 'द्रव्यार्थ-अप्रदेशार्थता' यह एक ही पद कहना चाहिए / इसलिए यहाँ 16 बोलों के बदले 14 बोल ही होते हैं।" द्रव्यार्थता सूत्र में निष्कम्प संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध, निष्कम्प परमाणुओं से संख्यात-गुण कहे गए हैं और प्रदेशार्थ सूत्र में वे परमाणुओं से असंख्यात-गुणे कहे गए हैं, क्योंकि निष्कम्प परमाणुओं से निष्कम्प संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से संख्यात-गुण होते हैं। उनमें से बहुत से स्कन्धों में उत्कृष्ट संख्या वाले प्रदेश होने से वे निष्कम्प परमाणुगों से प्रदेशार्थ से असंख्यात-गुण होते हैं, क्योंकि उत्कृष्ट संख्या में एक संख्या की वृद्धि होने पर वे असंख्यात हो जाते हैं / परमाणु से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक देशकम्प-सर्वकम्प-निष्कम्पता को प्ररूपणा 211. परमाणुयोग्गले गं भंते ! कि देसेए, सव्वेए, निरेए ? गोयमा ! नो देसेए, सिय सव्धेए, सिय निरेये। [211 प्र.] भगवन् ! परमाणु-पुद्गल देशकम्पक (कुछ अश में कम्पित होने वाला) है, सर्वकम्पक (पूर्णतया कम्पित होने वाला) है या निष्कम्पक है ? [211 उ.] गौतम ! परमाणु-पुद्गल देशकम्पक नहीं है, वह कदाचित् सर्वकम्पक है, कदाचित् निष्कम्पक है। 212. दुपदेसिए णं भंते ! खंधे० पुच्छा। गोयमा ! सिय देसेए, सिय सम्वेए, सिय निरेये। |212 प्र. भगवन् ! (द्विप्रदेशी स्कन्ध देशकम्पक है, सर्वकम्पक है या निष्कम्पक है ? 1212 उ.] गौतम ! वह कदाचित् देशकम्पक, कदाचित् सर्वकम्पक और कदाचित् निष्कम्पक होता है। 213. एवं जाव अणंतपदेसिए / [213] इसी प्रकार यावत् अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध तक जानना चाहिए। 214. परमाणुपोग्गला गं भंते ! किं वेसेया, सम्वेया, निरेया? गोयमा ! नो देसया, सम्वेया वि, निरेया वि। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 887 2. वही, पत्र 887 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org