________________ पंचमो उद्देसओ : 'पज्जव' पंचम उद्देशक : 'पर्यव' (आदि) पर्यव-भेद एवं उसके विशिष्ट पहलुओं के विषय में पर्यवपद : अतिदेश 1. कतिविहाणं भंते ! पज्जवा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पज्जवा पन्नत्ता, तं जहा-जीवपज्जवा य अजीचपज्जवा य / पज्जवपयं निरवसेसं भाणितत्वं जहा पण्णवणाए। [ 1 प्र.] भगवन् ! पर्यव कितने प्रकार के कहे हैं ? [1 उ.] गौतम ! पर्यव दो प्रकार के कहे हैं। यथा--जीवपर्यव और अजीवपर्यव / यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का पांचवां पर्यव पद कहना चाहिए। विवेचन-पर्यव के एकार्थक शब्द-पर्यव, गुण, धर्म, विशेष, पर्यय और पर्याय, ये सब पर्यव शब्द के पर्यायवाची (समानार्थक) शब्द हैं। जीवपर्यव और अजीवपर्यव के लिये प्रज्ञापनासूत्र के पांचवें पद का यहाँ अतिदेश किया गया है / जीव के अनन्त पर्यव होते हैं और अजीब के भी सब मिलाकर अनन्त पर्यव होते हैं।' आवलिका से लेकर सर्वकालपर्यन्त कालभेदों में एकत्व-बहुत्व की अपेक्षा समयसंख्या प्ररूपणा 2. आवलिया णं भंते ! कि संखेज्जा समया, असंखेज्जा समया, अणंता समया ? गोयमा ! नो संखज्जा समया, असंखेज्जा समया, नो अर्णता समया। [2 प्र.] भगवन् ! क्या प्रावलिका संख्यात समय की, असंख्यात समय की या अनन्त समय की होती है ? [2 उ.] गौतम ! वह न तो संख्यात समय की होती है और न अनन्त समय की होती है, किन्तु असंख्यात समय की होती है। 3. आणापाणू णं भंते ! कि संखेज्जा ? एवं चेव / [3 प्र.] भगवन् ! आनप्राण (श्वासोच्छ्वास) संख्यात समय का होता है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [3 उ.] गौतम ! पूर्ववत् (असंख्यात समय का) होता है / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 889 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org