________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 5] [385 समय कम हो जाने पर भूतकाल और भविष्यत्काल की समानता नहीं रहेगी। इसलिए ये दोनों काल समान नहीं हैं, परन्तु भूतकाल से भविष्यत्काल अनन्तगुणा है, क्योंकि अनन्तकाल व्यतीत हो जाने पर भी उसका क्षय नहीं होता / ऐसी स्थिति में शंका होती है कि अतीत और अनागत, दोनों की समानता पूर्वोक्त कथनानुसार कहाँ रही ? समाधान-इसका समाधान यह है कि अतीत और अनागतकाल की जो समानता बताई जाती है, वह अनादित्व और अनन्तत्व की अपेक्षा से है / इसका अर्थ यह हुआ कि जिस प्रकार अतीतकाल की आदि नहीं है, वह अनादि है, इसी प्रकार भविष्यत्काल का भी अन्त नहीं है, वह भी अनन्त है। अत: अनादित्व और अनन्तत्व की अपेक्षा अतीतकाल और अनागतकाल की समानता विवक्षित है।' निगोद के भेद-प्रभेदों का निरूपण 45. कतिविधा णं भंते ! जिओदा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा णिोदा पन्नत्ता, तं जहा-णिओया य णिओयजीवा य / [45 प्र.] भगवन् ! निगोद कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [45 उ.] गौतम ! निगोद दो प्रकार के कहे गए हैं / यथा-निगोद और निगोदजीव / 46. णियोदा णं भंते ! कतिविधा पन्नत्ता ? गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-सुहुमनिगोदा य, बायरनियोया य। एवं नियोया भाणियन्वा जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं / [46 प्र.] भगवन् ! ये निगोद कितने प्रकार के कहे हैं ? [46 उ. | गौतम ! ये दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-सूक्ष्म निगोद और बादरनिगोद / इस प्रकार निगोद के विषय में समग्र वक्तव्यता जीवाभिगमसूत्र के अनुसार कहनी चाहिए। विवेचन-निगोद : स्वरूप और प्रकार-अनन्तकायिक जीवों के शरीर को 'निगोद' और अनन्तकायिक जीवों को 'निमोद के जीव' कहते हैं। निगोद दो प्रकार के होते हैं—सूक्ष्मनिगोद और बादरनिगोद। जिनके असंख्य शरीर एकत्रित होने पर चर्मचक्षुओं से दिखाई दे सकें, वे बादरनिगोद कहलाते हैं और कितने ही शरीर इकट्ठ होने पर भी जो चर्मचारों से दिखाई न दें, उन्हें सूक्ष्मनिगोद कहते हैं / निगोदजीव साधारणनामकर्म-उदयवर्ती कहलाते हैं। जीवाभिगम के अतिदेश से सूचित किया गया है कि सूक्ष्मनिगोद दो प्रकार के कहे हैं / यथा--पर्याप्तक और अपर्याप्तक इत्यादि / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 889 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 7, पृ. 3341 (ग) श्रीमद्भगवतीसूत्रम् खण्ड 4 (पं. भगवानदासजी कृत गुजराती अनुवाद), पृ. 238 / 2. (क) भगवती (हिन्दीविवेचन) भाग 7, पृ. 3342 (ख) श्रीमद्भगवतीसूत्रम् (चतुर्थ खण्ड) गुजराती अनुवाद, पृ. 239 (ग) भगवती प्र. वृत्ति, पत्र 890 (प्र.) सुहुम निगोदा णं भंते ! कतिविहा पण्णता? (उ.) गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं--पज्जत्तगा य अपज्जतगा य इत्यादि। (घ) जीवाभिगमसूत्र, प्रतिपत्ति 5, उ. 2, सू. 238-39, पत्र 423/2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org