________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] जीवास्तिकाय-मध्यप्रदेश तथा प्राकाशास्तिकायप्रदेशों की अवगाहना को प्ररूपणा __ 250. एए णं भंते ! अट्ट जीवत्थिकायस्स मज्भपएसा कतिसु आगासपएसेसु प्रोगार्हति ? / गोयमा ! जहन्नेणं एक्कसि या दोहि वा तोहि वा चहि वा पंचर्चाह वा छहि वा, उक्कोसेणं अट्ठसु, नो चेव णं सत्तसु। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // पंचवीसइमे सए : चउत्थो उद्देसओ समत्तो // 25-4 / / [250 प्र. भगवन् ! जीवास्तिकाय के ये आठ मध्य-प्रदेश कितने आकाशप्रदेशों को अवगाहित कर (..."में समा) सकते हैं ? 250 उ. गौतम ! वे जघन्य एक, दो, तीन, चार, पांच या छह तथा उत्कृष्ट पाठ आकाशप्रदेशों में अवगाहित हो (समा) सकते हैं, किन्तु सात प्रदेशों में नहीं समाते / ____ हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन-मध्यप्रदेशों का अवगाहन-जीव (आत्म-) प्रदेशों का धर्म संकोच और विकास (विस्तार) होने से उनके पाठ मध्य-प्रदेश एक आकाशप्रदेश से लेकर अाठ आकाशप्रदेशों में रह (समा) सकते हैं, किन्तु सात आकाशप्रदेशों में नहीं रहते (समाते); क्योंकि वस्तुस्वभाव ही कुछ ऐसा है।' // पच्चीसवां शतक : चतुर्थ उद्देशक सम्पूर्ण // LOD 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 887 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org