________________ पानीसवां शतक : उद्देशक 3] पयरतंसे से दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-पोयपएसिए य, जुम्मपएसिए य / तत्थ जे जे से प्रोयपएसिए से जहन्नेणं तिपएसिए, तिपएसोगाढे पन्नत्ते उपकोसेणं अणंतपएसिए असंखेज्जपएसोगाढे पन्नत्ते / तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं छप्पएसिए, छप्पएसोगाढे पन्नत्ते; उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेज्जपएसोगाढे पन्नते। तत्थ णं जे से घणतंसे से दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-ओयपदेसिए य, जुम्मपएसिए य। तत्थ णं जे से प्रोयपएसिए से जहन्नेणं पणतीसपएसिए पणतीसपएसोगाढे; उक्कोसेणं अणंतपएसिए, तं चेव / तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं चउप्पएसिए चउप्पदेसोगाढ पन्नते; उक्कोसेणं अणंतपएसिए, तं चेव / [38 प्र.] भगवन् ! यस्रसंस्थान कितने प्रदेश वाला और कितने आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ कहा गया है ? [38 उ.] गौतम ! यस्रसंस्थान दो प्रकार का कहा है / यथा-घनश्यस्र और प्रतरत्र्यस्त्र / उनमें से जो प्रतरत्र्यन है, वह दो प्रकार का कहा है। यथा-प्रोज-प्रदेशिक और युग्म-प्रदेशिक / धन्य तीन प्रदेश वाला और तीन अाकाशप्रदेशों में अबगाढ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशों वाला और असंख्यात आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ होता है। उनमें से जो घनश्यत्र है। वह दो प्रकार का कहा है। यथा-प्रोज-प्रदेशिक और युग्म-प्रदेशिक / ओज-प्रदेशिक घनश्यत्र जघन्य पैंतीस प्रदेशों वाला और पैंतीस अाकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्तप्रदेशिक और असंख्यात प्राकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है / यूग्म-प्रदेशिक घनश्यत्र जघन्य चार प्रदेशों वाला और चार आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्त-प्रदेशिक और असंख्यात अाकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ होता है। 39. चउरंसे णं भंते ! संठाणे कतिपदेसिए० पुच्छा। गोयमा ! चउरंसे संठाणे दुविहे पन्नत्ते, भेदो जहेव बट्टस्स जाव तत्थ णं जे से प्रोयपएसिए से जहन्नेणं नवपएसिए, नवपएसोगाढे पन्नत्ते; उक्कोसेणं अणंतपएसिए, असंखेज्जपएसोगाढे पन्नते। तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं चउपएसिए, चउपएसोगाढे पन्नते; उक्कोसेणं प्रणंतपएसिए, तं चेव / तत्थ पंजे से घणचउरसे से दुविहे पत्नत्ते, तं जहा–ओयपएसिए य, जुम्मपएसिए य / तत्थ णं जे से प्रोयपएसिए से जहन्नेणं सत्तावीसतिपएसिए, सत्तावीसतिपएसोगाढे; उक्कोसेणं प्रणंतपएसिए, तहेव / तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं अट्ठपएसिए, अट्ठपएसोगाढे पन्नत्ते; उक्कोसेणं अणंतपएसिए, तहेव / स्रसंस्थान कितने प्रदेश वाला और कितने अाकाश-प्रदेशों में अवगाढ होता है ? [36 उ.] गौतम ! चतुरस्रसंस्थान दो प्रकार का कहा है। यथा---घन-चतुरस्र और प्रतरचतुरस्त्र, इत्यादि, वृत्तसंस्थान के समान, उनमें से प्रतर-चतुरस्र के दो भेद प्रोज-प्रदेशिक और युग्मप्रदेशिक कहना / यावत् अोज-प्रदेशिक प्रतर चतुरस्त्र जघन्य नो प्रदेश वाला और नौ आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त-प्रदेशिक और असंख्येय आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है / युग्म-प्रदेशिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org