________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 3] [31 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में जहाँ यवाकार एक वृत्तसंस्थान है, वहाँ परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [31 उ.] गौतम ! वे संख्यात या असंख्यात नहीं, किन्तु अनन्त हैं। 32. बट्टा संठाणा? एवं चेव। [32 प्र.] भगवन् ! जहाँ यवाकर अनेक वृत्तस्थान हैं, वहाँ परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [32 उ.] गोतम ! पूर्ववत् जानना / 33. एवं जाव प्रायता। [33] इसी प्रकार यावत प्रायत तक जानना / 34. एवं पुणरवि एक्केक्केणं संठाणेणं पंच वि चारेतव्वा जहेव हेछिल्ला जाव आयतेणं / [34] यहाँ फिर पूर्ववत् प्रत्येक संस्थान के साथ पांचों संस्थानों का प्रायतसंस्थान तक विचार करना चाहिए। 35. एवं जाव आहेसत्तमाए।' [35] इसी प्रकार (आगे शर्कराप्रभापृथ्वी से लेकर) यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। 36. एवं कप्पेसु वि जाव ईसोपभाराए पुढवीए / [36] इसी प्रकार कल्पों (देवलोकों) यावत् ईषत्प्राम्भारापृथ्वी-पर्यन्त के विषय में जानना चाहिए / विवेचन परिमण्डलसंस्थान विषयक विश्लेषण-यह समन लोक परिमण्डलसंस्थान वाले पुद्गलस्कन्धों से निरंतर व्याप्त है। उनमें से तुल्यप्रदेशवाले, तुल्यप्रदेशावगाही और तुल्यवर्णादि पर्याय वाले जो-जो परिमण्डल द्रव्य हों, उन सबको कल्पना से एक-एक पंक्ति में स्थापित करना चाहिए / उसके ऊपर और नीचे एक-एक जाति वाले परिमण्डलद्रव्यों को एक-एक पंक्ति में स्थापित करना चाहिए / इस प्रकार इनमें अल्पबहुत्व होने से परिमण्डलसंस्थान का समुदाय यवाकार बनता है / इनमें जघन्य-प्रदेशिक द्रव्य स्वभावतः अल्प होने से प्रथम पंक्ति छोटी होती है और उसके बाद की पंक्तियां अधिक-अधिकतर प्रदेश वाली होने से क्रमशः बड़ी और अधिक बड़ी होती हैं। इसके पश्चात् क्रमशः घटते-घटते अन्त में उत्कृष्ट प्रदेश वाले द्रव्य अत्यन्त अल्प होने से अंतिम पंक्ति अत्यन्त छोटी होती है / इस प्रकार तुल्यप्रदेश वाले और उससे भिन्न परिमण्डल द्रव्यों द्वारा यवाकार क्षेत्र बनता है। 1. पाठान्तर-[प्र. सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए परिमंडला संठाणा ? [उ.] एवं चेव / एवं जाव-प्रायया / एवं जाब अहेसत्तमाए / 2. [प्र. सोहम्मे णं भंते ! कप्पे परिमंडला संठाणा ? [उ.] एवं चेव / एवं जाव--प्रमुए / [प्र.] गेवेज्जविमाणाणं भंते ! परिमंडलसंठाया.? [उ.1 एवं चेव / एवं प्रणतरविमाणेसू वि / एवं ईसिप्पभाराए वि // -श्रीमदभगवतीसव खण्ड 4, 5, 205 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org