________________ 30.] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 25. जत्थ णं भंते ! एगे वट्टे संठाणे जवमझे तत्थ परिमंडला संठाणा० ? एवं चेव; वट्टा संठाणा० ? / एवं चेव। [25 प्र.] भगवन् ! जहाँ यवाकार एक वृत्तसंस्थान है, वहाँ परिमण्डलसंस्थान कितने हैं ? [25 उ.] गौतम ! पूर्ववत् समझना / [प्र.] जहाँ यवाकार अनेक वृत्तसंस्थान हों, वहाँ परिमण्डलसंस्थान कितने हैं ? [उ.] पूर्ववत् समझना चाहिए / 26. एवं जाव आयता। [26] इसी प्रकार वृत्तसंस्थान (से लेकर) यावत् अायतसंस्थान भी अनन्त हैं / 27. एवं एक्कक्केणं संठाणेणं पंच वि चारेयब्वा / {27] इसी प्रकार एक-एक संस्थान के साथ पांचों संस्थानों के सम्बन्ध का विचार करना चाहिए। सप्त नरकपृथ्वियों से लेकर ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक में पांचों यवमध्य संस्थानों में परस्पर अनन्तता-प्ररूपरणा 28. जत्थ शं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए एगे परिमंडले संठाणे जयमझे तत्व परिमंडला संठाणा कि संखेज्जा० पुच्छा / गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। [28 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में जहाँ एक यवमध्य (यवाकार) परिमण्डल (यवाकृति निष्पादक-परिमण्डल के सिवाय) परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [28 उ.] गौतम ! वे संख्यात या असंख्यात नहीं हैं, किन्तु अनन्त हैं / 26. वट्टा णं भंते ! संठाणा किं संखेज्जा ? एवं चेव। [29 प्र.] भगवन् ! जहाँ यवाकार एक वृत्तसंस्थान है वहाँ परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [29 उ.] गौतम ! पूर्ववत् समझना चाहिए / 30. एवं जाव प्रायता। [30] इसी प्रकार यावत् आयत-पर्यन्त समझना। 31. जत्थ गं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए एगे बढ़े संठाणे जवमझे तत्थ णं परिमंडला संठाणा कि संखेज्जा० पुच्छा। गोयमा ! नो संखेन्जा, नो असंखेज्जा, मणंता / संस्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org