________________ पच्चीसो शतक : उद्देशक 3] विवेचन -गणिपिटक : स्वरूप और अंग-णि अर्थात् प्राचार्य के लिए, जो पिटक अर्थात् रत्नों के करण्डक के समान पिटारा हो, उसे 'गणिपिटक' कहते हैं। गणिपिटक के प्राचारांग से लेकर दृष्टिवाद तक बारह अंगरूप भेद कहे हैं / नन्दीसूत्र में आचारांग आदि में वणित विषयों का कथन है। जैसे कि --आचारांगसूत्र में श्रमण-निर्ग्रन्थों के अनेकविध आचार, गोचर (भिक्षाविधि) विनय, विनयफल, ग्रहणशिक्षा, प्रासेवनशिक्षा आदि का वर्णन किया है। इसी प्रकार अन्य अंगशास्त्रों का वर्णन भी नन्दीसूत्र से जान लेना चाहिए।' नन्दीसूत्र-वणित अनुयोगविधि–यहाँ मूलपाठ में 'सुत्तत्थो खलु पढमो' इत्यादि गाथा द्वारा नन्दीसूत्र में वर्णित अनुयोगविधि अर्थात्-गुरुदेव द्वारा शिष्य को दी जाने वाली वाचना की विधि बताई गई है / वह इस प्रकार है-(१) सर्वप्रथम मूलसूत्र और उसका अर्थ मात्र कहना चाहिए। नवदीक्षित या नवागत शिष्यों को मतिविभ्रम न हो जाए, इसलिए पहले-पहल उन्हें विस्तृत विवेचन न करके केवल सूत्रार्थमात्र कहना उचित है। (2) इसके पश्चात् सूत्रस्पशिक (सुत्रानुसारिणी) नियुक्ति (टीका आदि व्याख्या) सहित अर्थ कहना चाहिए। यह द्वितीय अनुयोग है / (3) तदनन्तर प्रसंगान प्रसंग के कथन से समग्र व्याख्या कहनी चाहिए। यह तृतीय अनुयोग है। मूलसूत्र को अनुकूल अर्थ के साथ संयोजित करना 'अनयोग' है। अनयोग की यह विधि है। नरयिकादि सेन्द्रियादि, सकायिकादि, आयुष्य-बन्धक-प्रबन्धकों के अल्पबहुत्व को प्ररूपणा 117. एएसि णं भंते ! नेरतियाणं जाय देवाणं सिद्धाण य पंचगतिसमासेणं कयरे कतरेहितो० पुच्छा। गोयमा ! अप्पाबहुयं जहा बहुवत्तव्वताए अट्ठगइसमासऽप्पाबहुगं च / [117 प्र.] भगवन् ! नैरयिक यावत् देव और सिद्ध इन पांचों गतियों (गति-समूह) के जीवों में कौन जीव किन जीवों से अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं? [117 उ. गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के तीसरे बहुवक्तव्यता-पद के अनुसार तथा पाठ गतियों के समुदाय का भी अल्पबहुत्व जानना चाहिए। 118. एएसि गं भंते ! सइंदियाणं एगिदियाणं जाव अणिवियाण य कतरे कतरेहितो. ? एवं पि जहा बहुवत्तव्ययाए तहेव प्रोहियं पयं भाणितव्वं / |118 प्र.) भगवन् ! सइन्द्रिय, एकेन्द्रिय यावत् अनिन्द्रिय जीवों में कौन जीव, किन जीवों से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [118 उ.] गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के तीसरे बहुवक्तव्यता-पद के अनुसार भौधिक पद कहना चाहिए। 116. सकाइयप्रप्पाबहुगं तहेव प्रोहियं भाणितव्वं / [119] सकायिक जीवों का अल्पबहुत्व भी औधिक पद के अनुसार जानना चाहिए। 1. भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. 7, पृ. 3262 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 869 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org