________________ 306] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 000 प्रोजप्रदेशी घनवत्त-में सात प्रदेश होते हैं। एक मध्य परमाणु के ऊपर एक परमाणु और नीचे भी एक परमाणु तथा उसके चारों ओर चार परमाणु होते हैं / युग्मप्रदेशी धनबत्त--में बत्तीस प्रदेश होते हैं। उनमें से / 0 0 / दो ऊपर, चार नीचे, फिर चार नीचे और उनके नीचे दो प्रदेश |deg deg deg deg स्थापित करने चाहिए। उसके ऊपर इसी प्रकार का बारह प्रदेशों . . / का दूसरा प्रतर रखना चाहिए और दोनों प्रतरों के मध्यभाग के चार प्रदेशों के ऊपर दूसरे चार प्रदेश ऊपर और चार प्रदेश नीचे 24|4/2 रखना चाहिए। प्रोज-प्रदेशिक घनत्र्यत्र-यह पैंतीस प्रदेशों का होता है। उसमें प्रथम इस प्रकार 15 प्रदेशों के प्रतर पर ... दूसरे दस प्रदेशों का प्रतर पर तीसरे छह, प्रदेशों का प्रतर 22 2442 "... -..-उस पर चौथा तीन प्रदेशों का प्रतर degdeg और उस पर एक परमाणु (प्रदेश) * रखना चाहिए / घनश्यत्र के चार भेदों में से तीसरे भेद का यह आकार दिया है। शेष तीन भेदों का कथन अर्थ में दे दिया गया है / चित्र संख्या (1) ओजप्रदेशी घनश्यस्र का समुच्चय में प्राकार इस प्रकार है / चित्र संख्या (2) युग्मप्रदेशी घनश्यत्र / चित्र संख्या (3) प्रोजप्रदेशी प्रतरत्र्यत्र / चित्र संख्या (4) युग्मप्रदेशी प्रतरत्र्यस्र। R32R/ चित्र 4. चित्र 1. चित्र 2. चित्र 3. प्रोजप्रदेशी घनचतुरस्त्र आदि चार भेद--ओ. प्र. घनचतुरन 27 प्रदेशों का होता है / नौ प्रदेशों का प्रतर रखकर उस पर उसी प्रकार के दो प्रतर और रखने चाहिए। युग्मप्रदेशी घनचतुरस्त्र 8 प्रदेशों का है जो चतुष्प्रदेशी प्रतर के ऊपर दूसरा चतुष्प्रदेशी प्रतर रखने से होता है / इनके ऊपर न रखने से क्रमश: प्रो. प्र. प्रतरचतुरस्र और यु. प्र. प्रतर चतुरस्र संस्थान क्रमश: 6 और 4 प्रदेशों का होता है। यथा-- र 2.2. / 1000 3001 तथा 100 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org