________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 3] [311 [57 प्र.] भगवन् ! (अनेक) वृत्त-संस्थान कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ होते हैं ? इत्यादि पृच्छा। [57 उ.] गौतम ! वे अोघादेश से कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ होते हैं, किन्तु योज-प्रदेशावगाढ, द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ या कल्योज-प्रदेशावगाढ होते हैं। विधानादेश से वे कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ भी हैं, ज्योज-प्रदेशावगाढ भी हैं, किन्तु द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ नहीं हैं, हाँ, कल्योज-प्रदेशावगाढ हैं। 58. तंसा णं भंते ! संठाणा कि कडजुम्म० पुच्छा। गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, नो तेयोगपदेसोगाढा, नो दावरजुम्मयदेसोगाढा, नो कलियोगपएसोगाढा; विहाणादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा कि, तेयोगपएसोगाढा वि, नो दावरजुम्मपएसोगादर, कलियोगपएसोगाढा वि। [58 प्र.] भगवन् ! (अनेक) त्र्यस्त्र-संस्थान कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [58 उ.] गौतम ! भोघादेश से वे कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ हैं किन्तु न तो योज-प्रदेशावगाढ होते हैं, न द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ होते हैं और न ही कल्योज-प्रदेशावगाढ होते हैं / 56. चउरंसा जहा वट्टा / [56] चतुरस्त्र-संस्थानों के विषय में वृत्त-संस्थानों के समान कहना चाहिए / 60. प्रायता णं भंते ! संठाणा० पुच्छा। गोयमा! ओघादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा, नो तेयोगपदेसोगाढा, नो दावरजुम्मपदेसोगाढा, नो कलिनोगपदेसोगाढा; विहाणादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा वि जाव कलियोगपएसोगाढा वि। [60 प्र.] भगवन् ! (अनेक) आयत-संस्थान कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ होते हैं ?, इत्यादि प्रश्न / [60 उ.] गौतम ! वे ओघादेश से कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ होते हैं किन्तु न तो त्र्योजप्रदेशावगाढ होते हैं, न ही द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ होते हैं और न कल्योज-प्रदेशावगाढ होते हैं / विधानादेश से वे कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ भी होते हैं, यावत् कल्योज-प्रदेशावगाढ भी होते हैं। विवेचन-परिमण्डलादि संस्थानों का अवगाहनसम्बन्धी निरूपण -अवगाह के विषय में कथन करते हुए परिमण्डल-संस्थान बीस प्रदेशावगाढ बताया गया है। बीस में चार का अपहार करते हुए चार शेष रहते हैं, अत: वह कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ होता है। इसी प्रकार आगे भी कृतयुग्मप्रदेशावगाढ, व्योज-प्रदेशावगाढ, द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ और कल्योज-प्रदेशावगाढ के विषय में भी यथायोग्य समझना चाहिए / परिमण्डल आदि संस्थानों का पहले एकवचन-सम्बन्धी विचार किया गया है, बाद में बहुवचन-सम्बन्धी निरूपण है। उसमें भी अोघादेश और विधानादेश—ये दो भेद किये गए हैं / सामान्यतः सर्व-समुदायरूप कथन 'प्रोधादेश' है और पृथक-पृथक् विचार 'विधानादेश' है / इसके कथन में जो कृतयुग्म आदि का परिमाण बनता है, वह वस्तुस्वरूप होने से उस-उस प्रकार का कृतयुग्म, योज आदि परिमाण बनता है।' -..---.-.-. -.--. ......-- ----- --... 1. भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भाग 7, पृ. 3237-38 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org