________________ 314] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 73. पाईणपडोणायतानो णं भंते ! लोयागाससेढोनो दवद्वताए कि संखेज्जामो०? एवं चेव। [73 प्र.] भगवन् ! पूर्व और पश्चिम में लम्बी लोकाकाश की श्रेणियाँ द्रव्यार्थरूप से संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न / [73 उ.] गौतम ! पूर्ववत् (असंख्यात) हैं। 74. एवं दाहिणुत्तरायतानो वि / इसी प्रकार दक्षिण और उत्तर में लम्बी लोकाकाश की श्रेणियों के विषय में समझना चाहिए ? 75. एवं उड्ढमहायतामो वि। [75] इसी प्रकार ऊर्ध्व और अधो दिशा में लम्बी लोकाकाश की श्रेणियों के सम्बन्ध में जानना। 76. अलोयागाससेडीओ णं भंते ! दवद्वताए कि संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ० पुच्छा। गोयमा ! नो संखेज्नामो, नो असंखेज्जानो, अणंताओ। [76 प्र.] भगवन् ! अलोकाकाश की श्रेणियाँ द्रव्यार्थरूप से संख्यात हैं, असंख्यात है या अनन्त हैं ? [76 उ.] गौतम ! वे संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, किन्तु अनन्त हैं / 77. एवं पाईणपडोणायतानो वि। [77] इसी प्रकार पूर्व और पश्चिम में लम्बी अलोकाकाकाश-श्रेणियों के विषय में भी समझना चाहिए। 78. एवं दाहिणुत्तरायतानो वि / [78] दक्षिण और उत्तर में लम्बी अलोकाकाश-श्रेणियों सम्बन्धी कथन भी इसी प्रकार है / 76. एवं उड्डमहायतानो वि। [76] ऊर्ध्व और अधोदिशा में लम्बी अलोकाकाश की श्रेणियाँ भी इसी प्रकार हैं / विवेचन-श्रेणी : स्वरूप, प्रकार और संख्यातादि निरूपण-यद्यपि श्रेणी पंक्तिमात्र को कहते हैं, तथापि यहाँ श्रेणी शब्द से आकाशप्रदेश की पंक्तियाँ विवक्षित हैं / श्रेणी के सामान्यतया यहाँ चार प्रकार बताए हैं--(१) लोकाकाश या अलोकाकाश की विवक्षा किये बिना सामान्य श्रेणी (2) पूर्व और पश्चिम में, दक्षिण और उत्तर में तथा ऊर्ध्व और अधोदिशा में लम्बी श्रेणी, (3) लोकाकाशसम्बन्धी पूर्वोक्त चार श्रेणियाँ और (4) प्रलोकाकाश-सम्बन्धी पूर्वोक्त चार प्रकार की श्रेणियाँ / द्रव्यार्थरूप से सामान्य आकाशप्रदेश की श्रेणियाँ अनन्त हैं। लोकाकाश की श्रेणियाँ असंख्यात हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org