________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 3] [315 क्योंकि लोकाकाश असंख्यात-प्रदेशात्मक ही है / प्रलोकाकाश को श्रेणियाँ अनन्त हैं, क्योंकि अलोकाकाश अनन्त-प्रदेशात्मक है।' श्रेरिगयों तथा लोक-अलोकाकाशश्रेणियों में प्रदेशार्थ से यथायोग्य संख्यातादि प्ररूपणा 80. सेढीओ णं भंते ! पएसट्टयाए कि संखेज्जायो ? जहा दस्वट्ठयाए तहा पदेसट्टयाए वि जाव उड्डमहायताओ, सव्वाओ अणंताओ। 100 प्र.| भगवन् ! आकाश की श्रेणियाँ प्रदेशार्थरूप से संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ? [80 उ.] गौतम ! द्रव्यार्थता की वक्तव्यता के समान प्रदेशार्थता की वक्तव्यता; यावत् ऊर्ध्व और अधोदिशा में लम्बी सभी श्रेणियाँ अनन्त हैं; यहाँ तक कहना चाहिए / 81. लोयागाससेढीयो णं भंते ! पदेसट्टयाए कि संखेज्जायो पुच्छा। गोयमा ! सिय संखेज्जानो, सिय असंखेज्जाओ, नो अणंताओ। [81 प्र. | भगवन् ! लोकाकाश की श्रेणियाँ प्रदेशार्थरूप से संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न / [81 उ. ] गौतम ! वे कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात हैं, किन्तु अनन्त नहीं हैं। 52. एवं पादीणपडीणायताओ वि, दाहिणुत्तरायताओ वि। [82] पूर्व और पश्चिम में लम्बी श्रेणियाँ तथा उत्तर और दक्षिण में लम्बी श्रेणियां भी इसी प्रकार हैं। 83. उड्वमहायतानो नो संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ, नो प्रणंतानो। [83] ऊर्ध्व और अधोदिशा में लम्बी लोकाकाश की श्रेणियाँ संख्यात नहीं और अनन्त भौ नहीं, किन्तु असंख्यात है।। 84. प्रलोयागाससेढीयो गं भंते ! पएसटुताए० पुच्छा। गोयमा ! सिय संखेज्जाओ, सिय असंखेज्जाओ, सिय अणंतानो। [84 प्र. भगवन् ! अलोकाकाश की श्रेणियाँ प्रदेशार्थरूप से संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न / [84 उ.] गौतम ! वे कदाचित् संख्यात हैं, कदाचित् असंख्यात हैं और कदाचित् अनन्त हैं। 85. पाईणपडीणायताओ णं भंते ! प्रलोयागाससेढोओ० पुच्छा। गोयमा ! नो संखेज्जानो, नो असंखेज्जाओ, अणंतायो। [85 प्र.] भगवन् ! पूर्व और पश्चिम में लम्बी अलोकाकाश की श्रेणियाँ (प्रदेशार्थ रूप से) संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न / [85 उ. गौतम ! वे संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, किन्तु अनन्त हैं / 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्र 865 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org