________________ 29.] [व्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन असंख्यलोकाकाश में अनन्त द्रव्यों का समावेश कैसे--प्रश्नकार का प्राशय यह है कि असंख्यप्रदेशात्मक लोका काश में अनन्तद्रव्य कैसे समा सकते हैं ? इसका समाधान यह है कि जैसे एक कमरा एक दीपक के प्रकाश के पुदगलों से भरा हना है। उसमें दो, चार, दस. बीस प्रादि दीपक रख देने पर भी उनके प्रकाश के पुद्गलों का समावेश उसी में हो जाता है, उसके लिए अलग कमरे या स्थान की आवश्यकता नहीं रहती। पुद्गल परिणमन की ऐसी विचित्रता है। इसी प्रकार असंख्यप्रदेशात्मक लोकाकाश में द्रव्यों के तथाविध परिणामवश अनन्तद्रव्य समा जाते हैं / इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है और न उनमें परस्पर संघर्ष होता है। अत: असंख्यप्रदेशात्मक लोक में अनन्तद्रव्यों का अवस्थान हो सकता है।' लोक के एक प्रदेश में पुद्गलों के चय-छेद-उपचय-अपचय का निरूपण 8. लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे कतिदिसि पोग्गला चिज्जति ? __गोयमा ! निवाघातेणं छदिसि; बाघातं पडुच्च सिय तिदिसि, सिय चउदिसि, सिय पंचदिसि / [प्र. भगवन् ! लोक के एक ग्राकाशप्रदेश में कितनी दिशाबो से पाकर पुदगल एकत्रित होते हैं ? 8 उ. गौतम ! निर्व्याघात से (व्याघात = प्रतिबन्ध न हो तो) छहों दिशाओं से तथा व्याघात की अपेक्षा—कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से (पुद्गल पाकर एकत्रित होते हैं।) 6. लोगस्स णं भंते ! एगम्मि भागासपएसे कतिदिसि पोग्गला छिज्जति ? एवं चेव / [प्र.] भगवन् ! लोक से एक आकाश प्रदेश में एकत्रित पुद्गल कितनी दिशाओं से पृथक होते हैं ? [9 उ.] गौतम ! यह भी पूर्व कथनानुसार समझना चाहिए। 10. एवं उचिचंति, एवं अवचिज्जति / |10| इसी प्रकार (अन्य पुद्गलों के मिलने से) स्कन्ध के रूप में पुद्गल उपचित होते (बढ़ते) हैं और (पुद्गलों के अलग-अलग होने पर) अपचित होते (घटते) हैं। विवेचन--चय, छेद, उपचय और अपचय का लक्षण--चय-- बहुत-सी दिशानों से प्राकर एक स्थान पर (एक नाकाशप्रदेश में) इकट्ठा होना- समा जाना / छेद-एक प्राकाशप्रदेश में एकत्रित पुद्गलों का पृथक हो जाना / उपचय-स्कन्धरूप पुद्गलों का दूसरे पुद्गलों के सम्पर्क से बढ़ जाना / अपचय- स्कन्धरूप पुद्गलों में से प्रदेशों के पृथक हो जाने से उस स्कन्ध का कम हो जाना। 1. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3207 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 856 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org