________________ पढमे सालिवग्गे : सेसा नव उद्देसगा प्रथम 'शालि' वर्ग : शेष नौ उद्देशक कन्द प्रादि के रूप में उत्पन्न शालि आदि जीवों का प्रथमोद्देशकानुसार निरूपण 2-1. अह भंते ! साली वोही जाव जवजवाणं, एएसि णं जे जीवा कंदत्ताए वक्कमति ते गं भंते ! जोवा कमोहितो उववज्जति ? एवं कंदाहिगारेण सो चेव मूलुद्देसो अपरिसेसो भाणियब्वो जाव असति अदुवा अणंतखुत्तो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / [उ. 2, सू. 1 प्र. भगवन ! शालि, वीहि, यावत् जवजव, इन सबके 'कन्द' रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [उ. 2, सू. 1 उ. (गौतम !) 'कन्द' के विषय में, वही (पूर्वोक्त) मूल का समग्र उद्देशक, यावत्-- ‘अनेक बार या अनन्त बार इससे पूर्व उत्पन्न हो चुके हैं, (यहाँ तक) कहना चाहिए। (विशेष यह है कि यहाँ 'मूल' के स्थान में 'कन्द' पाठ कहना चाहिए / ) 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरने लगे। 3-1. एवं खंधे वि उद्देसओ नेतब्वो। [उ. 3, सू. 1] इसी प्रकार (प्रथम उद्देशकवत्) स्कन्ध का (तृतीय) उद्देशक भी जानना चाहिए। 4-1. एवं तयाए वि उद्देसो भाणितव्यो। [उ. 4, सू. 1] इसी प्रकार (प्रथम उद्देशकवत्) 'स्वचा' का (चतुर्थ) उद्देशक भी कहना चाहिए। 5.1. साले वि उद्देसो भाणियम्वो। [उ. 5, सू. 1] शाखा (शाल) के विषय में भी (पूर्ववत् समग्र पंचम) उद्देशक कहना चाहिए। 6-1. पवाले वि उद्देसो भाणियन्यो / [उ. 6, सू. 1] प्रवाल (कोंपल) के विषय में भी (पूर्ववत् समग्र छठा) उद्देशक कहना चाहिए। 7-1. पत्ते वि उद्देसो भाणियो / एए सत्त वि उद्देसगा अपरिसेसं जहा मूले तहा नेयव्वा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org