________________ बौबीसवां शतक : उद्देशक 1] उपपात (उत्पत्ति)--के विषय में दो प्रश्न किये गए हैं—(१) पर्याप्त-असंज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यचयोनिक कितनो नरकपृथ्वियों में उत्पन्न होता है ? , और (2) कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? उत्तर स्पष्ट है-वह एकमात्र रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होता है, रत्नप्रभा के नैरयिकों की जघन्य स्थिति 10 हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक सागरोपम की है। किन्तु पर्याप्त-असंज्ञो पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जो नरक में जाता है, वह पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों तक ही उत्पन्न होता है, इससे आगे नहीं। इसलिए यहाँ उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले प्रथम नरकीय नारकों तक ही उत्पन्न होना बताया है।' अन्य द्वारों का स्पष्टीकरण- यहाँ से आगे अनुबन्ध तक प्रायः सभी द्वार स्पष्ट हैं / दृष्टिद्वार में इन्हें केवल मिथ्यादष्टि तथा ज्ञान-अज्ञानद्वार में इन्हें अज्ञानी बताया गया है, परन्तु श्रेणिक महाराज का जीव जो प्रथम नरक में गया है, वह तो क्षायिक सम्यग्दृष्टि तथा ज्ञानी था / इसका समाधान यह है कि यहाँ पर्याप्त-असंज्ञी तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों में से मर कर जो प्रथम नरक में जाता है, उसका कथन है, मनुष्य में से मर कर प्रथम नरक में जाने वाले का कथन नहीं / इसलिए इस है। असंज्ञी की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त की होती है, नरक में जाने वाले के अध्यवसायस्थान प्रशस्त होते हैं, किन्तु आयुष्य को दीर्घस्थिति हो, तो प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के अध्यवसाय हो सकते हैं। अनुबन्ध आयुष्य के समान ही होता है किन्तु कायसंवेध नैरयिक और तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय की जघन्य और उत्कृष्ट दोनों स्थितियों को मिला कर जानना चाहिए।' कायसंवेध के विषय में स्पष्टीकरण-कायसंबंध का पर भव और काल दोनों अपेक्षाओं से विचार किया गया है। भव की अपेक्षा से दो भव का कायसं वेध इसलिए बताया है कि जो जीव पूर्वभव में असंज्ञी तिर्य चपंचेन्द्रिय हो और वहाँ से मर कर नरक में उत्पन्न हो तो वह नरक से निकल कर फिर असंज्ञी तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय नहीं होता, वह अवश्य ही संज्ञीपन प्राप्त कर लेता है। ___ काल की अपेक्षा से प्रसंज्ञी तिर्यंचपंचेन्द्रिय का कायसंवेध-जघन्यतः अन्तमुहर्त प्रायुष्यसहित, प्रथम नरक की जघन्य 10 हजार वर्ष की स्थिति वाला होता है, इसलिए जघन्य कायसंवेध अन्तमुहर्त अधिक दस हजार वर्ष का बताया है / उत्कृष्ट कायसवेध-असंज्ञी के पूर्वकोटिवर्ष प्रमाण उत्कृष्ट अायुष्यसहित प्रथम नरक (रत्नप्रभा) में उसका उत्कृष्ट प्रायुष्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है, इसलिए इन दोनों के आयुष्य को मिला कर असंज्ञी तिर्यंचपंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट कायसंवेध पूर्वकोटि वर्ष अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण बताया गया है / नरक में उत्पन्न होनेवाले संख्यातवर्षायुष्क पर्याप्त संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों की उपयात-प्ररूपरणा 51. जदि सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जंति कि संखेज्जवासाउयसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति, प्रसंखेज्जवासाउयसन्निपंचेदियतिरिक्ख० जाव उववज्जति ? 1. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2979 2. (क) वियाहपण्णत्ति सुत्तं भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणीयुक्त) पृ. 906 तथा 165 (ख) भगवती. (हिन्दी पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2999 3. (क) वही. भा. 6, पृ. 2986 (ख) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 809 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org