________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 20] [241 किया गया है, इसका कारण यह है कि ईशान देवलोक तक के देव ही पृथ्वीकायिकादि में उत्पन्न होते हैं।' पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होनेवाले वाणव्यन्तर देवों के उत्पाद-परिमारणादि बीस द्वारों को प्ररूपणा 56. जदि वाणमंतरे० कि पिसाय० ? तहेव जाव [56 प्र.] भगवन् ! यदि वे (सं. पं. तिर्यञ्च), वाणव्यन्तर देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे पिशाच वाणव्यन्तर देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [56 उ.] पूर्ववत् समझना चाहिए, यावत्५७. वाणमंतरे णं भंते ! जे भविए पंचेंदियतिरिक्ख० ? एवं चेव, नवरं ठिति सवेहं च जाणेज्जा। [57 प्र.] भगवन् ! वाणव्यन्तर देव, जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है ? / 57 उ. गौतम ! पूर्ववत् जानना / स्थिति और संवेध उससे भिन्न जानना चाहिए। विवेचन-निष्कर्ष-संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में सभी प्रकार के वाणव्यन्तर जाति के देव आ कर उत्पन्न होते हैं तथा वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले सं. पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न होते हैं। पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होनेवाले ज्योतिष्क देवों में उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 58. जदि जोतिसिय०? उक्वातो तहेव जाव--- [58 प्र.] यदि वह (सं. पं. तिर्यञ्च) ज्योतिष्क देवों से पाकर उत्पन्न होता है, तो? इत्यादि प्रश्न / [58 उ.] उसका उपपात पूर्वोक्त कथनानुसार (पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च के उपपात के समान) कहना चाहिए / यावत् 56. जोतिसिए णं भंते ! जे भविए पंचेंदियतिरिक्ख० ? एस चेव वत्तम्बया जहा पुढविकाइयउद्देसए। भवग्गहणाई नबसु वि गमएसु अट्ठ जाव कालाएसेणं जहन्नेणं अट्ठभागपलिनोवमं अंतोमुत्तमब्भहियं, उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाई चहिं पुवकोडीहि चउहि य वाससयसहस्सेहि अन्भहियाई; एवतियं० / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 842 Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org