________________ 262] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [9 प्र.] भगवन् ! यदि वह (ज्योतिष्कदेव) संख्यात वर्ष की प्रायु वाले स. पं. तिर्यञ्च से आकर उत्पन्न हो तो? 9 उ.] यहाँ असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले संख्यात वर्ष की प्रायू वाले संज्ञी पं. तिर्यञ्चों के समान नौ ही गमक जानने चाहिए.। विशेष यह है कि ज्योतिष्क की स्थिति और संवेध भिन्न जानना चाहिए / शेष सब पूर्ववत् समझना। [गमक 1 से 6 तक] विवेचन---संख्येय-वर्षायुष्क तिर्यञ्च-सम्बन्धी अतिदेश-यहाँ संख्यात वर्ष की आयु वाले सं. पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न होने वाले ज्योतिष्कदेवों के नौ गमकों के लिए असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले संजो पं. तिर्यञ्चों के नौ गमकों का अतिदेश किया गया है / केवल स्थिति और संवेध में अन्तर है।' ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों में उपपात प्रादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 10. जदि मणुसैहितो उववज्जति ? भेदो तहेव जाव-- [10 प्र.] (भगवन् ! ) यदि वे (ज्योतिष्क देव) मनुष्यों से आकर उत्पन्न हों तो ? (इत्यादि प्रश्न / ) [10 उ.] (गौतम ! ) पूर्वोक्त संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च के समान जानना चाहिए। पूर्ववत् मनुष्यों के भेदों का उल्लेख करना चाहिए। 11. असंखेज्जवासाउयसनिमणुस्से गं भंते ! जे भविए जोतिसिएसु उक्वज्जितए से णं भंते ! 0? एवं जहा असंखेज्जवासाउयसग्निपंच दियस्स जोतिसिएसु चेव उववज्जमाणस्स सत्त गमगा तहेव मणुस्साण वि, नवरं प्रोगाहणाक्सेिसो-पढमेसु तिसु गमएसु ओगाहणा जहन्नेणं सातिरेगाई नव धणुसयाई, उक्कोसेणं तिनि गाउयाई। मज्झिमगमए जहन्नेणं सातिरेगाई नव घणुसयाई, उक्कोसेण वि सातिरेगाइं नव धणुसयाई / पच्छिमेसु तिसु गमएसु जहन्नेणं तिनि गाउयाई, उक्कोसेण वि तिनि गाउयाई / सेसं तहेब निरवसेसं जाव संवेहो त्ति / 11 प्र.] भगवन् ! असंख्यात वर्ष की आयु वाला संज्ञी मनुष्य, जो ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होता है ? 11 उ. (गौतम ! ) जिस प्रकार ज्योतिष्कों में उत्पन्न होने वाले असंख्येयवर्षायूष्क संजी पं. तिर्यञ्च के सात गमक कहे गये हैं, उसी प्रकार यहाँ मनुष्य के विषय में भी समझना। प्रथम के तीन गमकों में अवगाहना की विशेषता है। उनकी अवगाहता जघन्य सातिरेक नौ उत्कृष्ट तीन गाऊ को होती है। मध्य के तीन गमक में जघन्य और उत्कृष्ट सातिरेक नौ सौ धनुष होती है तथा अन्तिम तीन गमकों में जघन्य और उत्कृष्ट तीन गाऊ होतो है / शेष, यावत् संवेध तक पूर्ववत् जानना चाहिए। .... --- 1. विवाहपण्पत्तिसुत्तं (मूल पाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 963 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org