________________ 244] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन स्पष्टीकरण-(१) पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में आठवें देवलोक से आकर उत्पन्न होते हैं। इनके परिणाम, संहनन आदि की वक्तव्यता पूर्ववत् समझना चाहिए। भवादेश आदि के लिए भी पूर्ववत् अतिदेश किया गया है।' (2) अवगाहना-प्रज्ञापनासूत्र के 21 वें पद के अनुसार इस प्रकार है 'भवण-वण-जोइ-सोहम्मोसाणे सत्त हुँति रयणीओ। एक्केक्क-हाणि सेसे दुदुगे य दुगे चउक्के य॥' अर्थात-भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा सौधर्म और ईशान देवलोक में भवधारणीय अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्ट सात रत्लि (हाथ) है। सनत्कुमार और माहेन्द्र में 6 रत्नि है। ब्रह्मलोक और लान्तक में 5 रत्नि, महाशुक्र और सहस्रार में 4 रत्नि तथा मानत, प्राणत, पारण और अच्युत में तीन रत्नि की अवगाहना होती है। उत्तरवैक्रिय अवगाहना सभी देवलोकों में जघन्य अंगुल का संख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन की होती है। (3) स्थिति सभी की भिन्न-भिन्न है, जिसका निर्देश अन्यत्र किया जा चुका है। स्थिति के अनुसार उपयोग पूर्वक संवेध जान लेना चाहिए / // चौवीसवां शतक : वीसवाँ उद्देशक सम्पूर्ण / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 842 2. (क) बही, पत्र 842 (ख) पण्णवणासुत्तं, भा. 1 सू. 1532/5, पृ. 341 (महावीरविद्यालय प्रकाशन) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org