________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 21] [247 गोयमा! एगिदियतिरिक्ख० भेदो जहा पंचेदियतिरिक्खजोणिउद्देसए (उ०२० सु०११) नवर सेउ-बाऊ पडिसेहेयध्वा / सेसं तं चेव जाय.... 5 प्र.] भगवन् ! यदि वे (मनुष्य), तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे एकेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, या यावत् पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं ? [5 उ.] गौतम ! वे एकेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, इत्यादि वक्तव्यता पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च-उद्देशक (उ. 20, सू. 11) में कहे अनुसार जाननी चाहिए। किन्तु विशेष यह है कि इस विषय में तेजस्काय और वायकाय का निषेध करना चाहिए क्योंकि इन दोनों मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होता)। शेष समग्न कथन पूर्ववत् समझना चाहिए / यावत्-- 6. पुढविकाइए णं भंते जे भविए मणुस्सेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्तद्वितीएसु, उक्कोसेणं पुवकोडिअाउएसु उवव०।। [6 प्र. भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक, मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल को स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है ? 16 उ.} गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटिवर्ष की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है। 7. ते णं भंते ! जीवा०? एवं जा चेव पंचें दियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जमाणस पुढविकाइयस्स बत्तवया सा चेव इह वि उववज्जमाणस्स भाणियन्वा नवसु वि गमएसु, नवरं ततिय-छट्ठ-णवमेसु गमएस परिमाणं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिग्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जति / 7 प्र. भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 17 उ.] जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने वाले पथ्वीकायिक की वक्तव्यता है, वही यहाँ मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकायिक की वक्तव्यता नौ गमकों में कहनी चाहिए / विशेष यह है कि तीसरे, छठे और नौवें गमक में परिमाण जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं, (ऐसा कहना चाहिए)। . 8. जाहे अप्पणा जहन्नकाल द्वितीयो भवति ताहे पढमगमए अझवसाणा पसत्था वि अप्पसत्या वि, बितियगमए अप्पसत्था, ततिए गमए पसस्था भवंति / सेसं तं चैव निरवसेसं / [8] जब स्वयं (पृथ्वीकायिक) जघन्यकाल की स्थिति वाला होता है, तब मध्य के तीन गमकों में से प्रथम (चौथे) गमक में अध्यवसाय प्रशस्त भी होते हैं और अप्रशस्त भी। द्वितीय (पाँचवें) गमक में अप्रशस्त और तृतीय (छठे) गमक में प्रशस्त अध्यवसाय होते हैं। शेष सब पूर्ववत् जानना। 6. जति पाउकाइए० एवं प्राउकाइयाण वि। [6 प्र.] यदि वे अप्कायिकों से आकर उत्पन्न हो तो। [6 उ.] अप्कायिकों के लिए भी (पूर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिए / ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org