________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 21) [253 किन्तु मिथ्यादृष्टि और सम्यगमिथ्यादटि नहीं होते / वे ज्ञानी होते है, अज्ञानी नहीं / उनके नियम से तीन ज्ञान होते हैं / यथा-आभिनिबोधिक, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान / उनकी स्थिति जघन्य इकतीस सागरोपम की और उत्कष्ट 33 सागरोपम की होती है। शेष पूर्ववत् जानना। भवादेश से-बे जघन्य दो भव और उत्कृष्ट चार भव ग्रहण करते हैं। कालादेश से-जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक इकतीस सागरोपम और उत्कष्ट दो पूर्वकोट अधिक छयासठ सागरोपम, इतने काल तक यावत गमनागमन करते हैं। (यह प्रथम गमक हमा।) इसी प्रकार शेष पाठ गमक कहने चाहिए। विशेष यह है कि इनके स्थिति, अनुबन्ध और संवेध भिन्न-भिन्न जानने चाहिए / शेष सब इसी प्रकार है। [गमक 1 से 6 तक) 25. सबसिद्धगदेवेणं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववज्जित्तए.? सा चेव विजयादिदेववत्तव्वया भाणियन्वा, गवरं ठिती अजहन्नमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। एवं अणुबंधो वि। सेसं तं चेव / भवाएसेणं दो भवग्गहणाई, कालाएसेणं जहन्नेणं तेत्तीस सागरोवमाई वासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुवकोडीए अभहियाई, एवतियं० / [पढमो गमओ] / [25 प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध देव, जो मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य हैं, कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं ? [25 उ.] (गौतम !) वही विजयादि-देव-सम्बन्धी वक्तव्यता इनके विषय में कहनी चाहिए। इनकी स्थिति अजघन्य-अनुत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। इसी प्रकार अनुबन्ध भी जानना चाहिए। शेष पूर्ववत् / भवादेश से—दो भव तथा कालादेश से-जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक तेतीस सागरोपम और उत्कृष्ट भी इतने ही काल तक यावत् गमनागमन करता है। [प्रथम गमक] 26. सो चेव जहलकालद्वितीएसु उववन्नो, एस चेव वत्तवया, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई वासपुहत्तमन्भहियाई, उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाई वासपुहत्तमभहियाई; एवतियं / [बीमो गमओ] / [26] यदि वह सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक देव, जघन्य काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न हो तो उसके विषय में यही वक्तव्यता कहनी चाहिए / कालादेश के सम्बन्ध में विशेष यह है कि जघन्य और उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व-अधिक तेतीस सागरोपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। [द्वितीय गमक] 27. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, एस चैव वत्तम्वया, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुवकोडीए अबभहियाई, उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमा पुश्वकोडीए अमहियाई; एवतियं० / [तइओ गमओ] / एए चेव तिणि गमगा, सेसा न भण्णंति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / // चउवीसइमे सए : इक्कवीसइमो उद्देसो समत्तो / / 24-21 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org