________________ 250] [ध्यात्याप्रज्ञप्तिसूत्र तिर्यञ्चयोनिक उद्देशक में कहा है, उसी प्रकार सनत्कुमार से लेकर यावत् सहस्रार तक के देव के सम्बन्ध में कहना चाहिए / परन्तु विशेष यह है कि उनका परिमाण-~-जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। उनकी उत्पत्ति जघन्य वर्षपथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति वाले मनुष्यों में होती है। शेष सब पूर्व-कथनानुसार जानना चाहिए / संवेध-(जघन्य) वर्गपृथक्त्व (और उत्कृष्ट) पूर्वकोटि वर्ष से करना चाहिए / 16. सणंकुमारे ठिती चउग्गुणिया अट्ठावीसं सागरोवमा भवंति / माहिदे ताणि चेव सातिरेगाणि / बंभलोए चत्तालीसं / लतए छप्पण्यं / महासुक्के प्रवादि / सहस्सारे बावरि सागरोवमाई / एसा उपकोसा ठितो भणिया, जहन्नदिति पि चउगुणेज्जा। [16] सनत्कुमार में (संवेध) स्वयं की उत्कृष्ट स्थिति को चार गुणा करने पर अट्ठाईस सागरोपम होता है। माहेन्द्र में (संवेध) कुछ अधिक अट्ठाईस सागरोपम होता है / (इसी प्रकार स्वयं को उत्कृष्ट स्थिति को चार गुणा करने पर) ब्रह्मलोक में 40 सागरोपम, लान्तक में छप्पन सागरोपम, महाशुक्र में अड़सठ सागरोपम तथा सहस्रार में बहत्तर सागरोपम होता है / यह उत्कृष्ट स्थिति कही गई है / जघन्य स्थिति को भी चार गुणी करनी चाहिए। (यों कायसंवेध कहना चाहिए।) [गमक 1 से 6 तक] 17. प्राणयदेवे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति० ? गोयमा ! जहन्नेणं वासपुहत्तद्वितीएस उवव०, उक्कोसेणं पुवकोडिद्वितीएस। [17 प्र.] भगवन् ! प्रानतदेव, जो मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है ? [17 उ.] गौतम ! वह (मानतदेव), जघन्य वर्षपृथक्त्व की और उत्कृष्ट पूर्वकोटिवर्ष की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है / 18, ते णं भंते ! o? एवं जहेव सहस्सारदेवाणं वत्तव्यया, नवरं ओगाहणा-ठिति-अणुबंधे य जाणेज्जा। सेसं तं चेव / भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवगहणाई, उक्कोसेणं छ भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं अट्ठारस सागरोबमाई वासपुहत्तमहियाई, उक्कोसेणं सत्तावण्णं सागरोवमाइं तिहिं पुवकोडोहि अब्भहियाई; एवतियं कालं० / एवं नव वि गमा, नवरं ठिति अणुबंधं संवेहं च जाणेज्जा। [18 प्र.] भगवन् ! बे (मनुष्य) एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [18 उ.] (गौतम ! जिस प्रकार सहस्रारदेवों की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार यहाँ भी कहनी चाहिए / परन्तु इनकी अवगाहना, स्थिति और अनुबन्ध के विषय में भिन्नता जाननी चाहिए / शेष सब पूर्ववत् जानना / भव की अपेक्षा से-जघन्य दो भव और उत्कृष्ट छह भव ग्रहण करते हैं तथा काल की अपेक्षा से जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक अठारह सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक सत्तावन सागरोपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। इसी प्रकार नौ ही गमकों में जानना चाहिए। विशेष यह है कि इनकी स्थिति, अनुबन्ध और संवेध भिन्न-भिन्न जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org