________________ चौबीसवां शतक : उद्दशक 1] [147 नैरयिकों में उत्पन्न होने रूप तीसरा गमक है। (4) जघन्य स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का रत्नप्रभा नरक में उत्पन्न होने रूप चौथा गमक है। (5) जघन्य स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का जघन्य स्थिति (10 हजार वर्ष) वाली रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों में उत्पन्न होने रूप पंचम गमक है। (6) जघन्य स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने रूप छठा गमक है। (7) उत्कृष्ट स्थिति वाले संज्ञी पचेन्द्रियतिर्यञ्च का रत्नप्रभा-नारकों में उत्पन्न होने रूम सप्तम गमक है / (8) उत्कृष्ट स्थिति वाले संजी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का जघन्य स्थिति वाले रत्नप्रभा-नै रयिको में उत्पन्न होने रूप पाठवाँ गमक है और (8) उत्कृष्ट स्थिति वाले संज्ञीपंचेन्द्रियतिञ्च का उत्कृष्ट स्थिति वाले रत्नप्रभा-नैरयिकों में उत्पन्न होने रूप नौवाँ गमक है।' नौ गमकों के परिमाणादि द्वारों में अन्तर-(१) प्रथम गमक में विशेष एक समय में उत्पत्ति-संख्या, शरीरावगाहना तथा उपयोग से लेकर अनुबन्ध (आयु, अध्यवसाय और अनुबन्ध) तक के द्वार असंज्ञी के समान वताए गए हैं। उनमें छहों संहनन, छहों संस्थान, छहों लेश्याएँ, तीनों दृष्टि यां तथा तीनों ही योग एवं वेद होते हैं। नरक में उत्पन्न होने वाले संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में तीन ज्ञान या तीन अज्ञान विकल्प से पाये जाते हैं। अर्थात किसी में दो या तीन ज्ञान और किसी में दो या तीन अज्ञान होते हैं। असंजी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में आदि के तीन समुद्घात होते हैं और नरक में जाने वाले संजी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में आदि के पांच समुद्घात होते हैं। अर्थात- उनमें अन्तिम दो (ग्राहार और केवली) समुद्घात नहीं होते, क्योंकि ये दोनों समुद्धात मनुष्यों के सिवाय अन्य जीवों में नहीं होते। संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च प्रथम नरक में उत्पन्न होकर पुन: उसी (सं ति. प.) भव में उत्पन्न हो, तो भव की अपेक्षा जघन्य दो भव और उत्कृष्ट पाठ भव करता है / अर्थात्---वह पहले संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में उत्पन्न होता है, वहाँ से निकल कर पुनः नरक में उत्पन्न होता है, फिर मनुष्य में, यों अधिकृत कायसंवेध में दो भव जघन्यतः होते हैं। पाठ भव इस प्रकार होते हैं--प्रथम संज्ञीपंचेन्द्रियतिर्यञ्च, फिर नारक, फिर संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, फिर नारक, तदनन्तर संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, फिर नारक, तत्पश्चात् संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और फिर उसी नरकपृथ्वी में नारक; इस प्रकार वह आठ वार उत्पन्न होता है / नौवें भव में मनुष्य होता है। चौथे गमक में आठ नानात्व (अन्तर) हैं-(१) अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की, उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व की है, (2) लेश्या आदि की तीन, (3) दृष्टि सिर्फ मिथ्याष्टि, (4) अज्ञान दो, (5) प्रथम के तीन समुद्घात, (6) आयुष्य अन्तर्मुहूर्त, (7) अध्यवसायस्थान अप्रशस्त, (अशुभ) और अनुबन्ध आयुष्यानुसार होता है / शेष कथन संज्ञी के प्रथम गमक के समान है। सातवें गमक में अन्तर-इसका प्रायुष्य और अनुबन्ध पूर्वकोटिवर्ष का होता है।' पारिभाषिक शब्दों के अर्थ उत्क्षेप प्रारम्भवाक्य (प्रस्तावना) रूप होता है और निक्षेप समाप्तिवाक्य रूप होता है / निक्षेप का दूसरा नाम निगमन या उपसंहार है।' 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्र 811.812 (ख) भगवतीसूत्र (हिन्दी विवेचन) भा. 6, पृ. 3011 2. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 811-812 (ख) भगवतीसूत्र (हिन्दी विवेचन) भा. 6, पृ. 3011 3. भगवती. अ. वति, पत्र 812 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org