________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 20) [227 स्थिति वाले सप्तम पृथ्वी के नैरयिक में पाया जाता है, क्योंकि सप्तम नरक में तीन भवों की जघन्य स्थिति 66 सागरोपम की होती है, और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च के तीन भवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पूर्वकोटि की होती है / यदि उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की ग्रायु वाला नैरयिक हो, और पूर्वकोटि की प्राथु वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में आकर उत्पन्न हो तो इस प्रकार दो बार ही उत्पत्ति होती है। इससे दो पूर्वकोटि अधिक 66 सागरोपम ही स्थिति होती है। तिर्यञ्चभवसम्बन्धी पूर्वकोटि नहीं होती। इस प्रकार भव और काल की उत्कृष्टता नहीं होती। पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होनेवाले एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियों के उपपात-परिमाणादि को प्ररूपणा 11. जति तिरिक्खजोगिएहितो उववज्जति कि एगिवियतिरिक्सजोणिएहितो० ? एवं उववानो जहा पुढविकाइयउद्देसए जाव [11 प्र.] यदि वह (संज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च) तियंञ्चयोनिकों से प्राकर उत्पन्न होता है तो क्या एकेन्द्रिय-तिर्यञ्च योनिकों से पाकर उत्पन्न होता है ? इत्यादि प्रश्न / [11 उ.] पृथ्वीकायिक उद्देशक में कहे अनुसार यहाँ उपपात समझना चाहिए / यावत्-- 12. पुढविकाइए गं भंते ! जे भविए पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जित्तए से गं भंते ! केवति? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्तद्वितीएसु, उक्कोसेणं पुष्वकोडिआउएसु उववज्जति / [12 प्र.] भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले (पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों) में उत्पन्न होता है ? |12 उ. गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले (पंचेन्द्रिय-तियंञ्चों) में उत्पन्न होता है / 13. ते णं भंते ! जीवा०? एवं परिमाणाईया अणुबंधपज्जवसाणा जा चेव प्रप्पणो सट्टाणे बत्तम्बया सा चेव पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जमाणस्स भाणियन्वा, नवरं नवसु वि गमएसु परिमाणे जहन्नेणं एकको वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा उववज्जति / भवादेसेण वि नवसु वि गमएसु-भवाएसेणं जहनेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। सेसं तं चेव / कालाएसेणं उभो ठिति करेज्जा। 13 प्र.] भगवन् ! वे पृथ्वीकायिक जीव (एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / ) 13 उ. यहाँ परिमाण से ले कर अनुबन्ध तक, अपने-अपने स्वस्थान में जो वक्तव्यता कही है, तदनुसार ही पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में भी कहनी चाहिए / विशेष यह है कि नौ ही 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 840 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org