________________ चौवीसवा शतक : उद्दशक 20 [16 प्र.] भगवन ! यदि ( वे पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च,) पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से पाकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे संज्ञो-पचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं या असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से० ? 16 उ.] गौतम ! वे संज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों से भी आकर उत्पन्न होते हैं; इत्यादि; पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले तिर्यञ्चों के भेद कहे हैं, तदनुसार यहाँ भी कहने चाहिए। यावत् 17. असन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए पंचेदियतिरिक्खजोणिएस उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकाल ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्त०, उक्कोसेणं पलिनोवमस्स असंखेज्जतिभाग द्वितीए उवव० / [17 प्र.] भगवन् ! असंज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक, जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने योग्य हैं, वह कितने काल की स्थिति वाले पंवेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है ? 17 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट पत्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है। 18. ते णं भंते.!? अवसेसं जहेव पुढ विकाइएसु उववज्जमाणस्स असन्निल्स तहेव निरवसेसं जाव भवाएसो ति। कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ता, उक्कोसेणं पलिओवमस्स प्रसंज्जतिभागं पुन्चकोडिपुहत्तमभहियं; एवतियं० / [पढमो गमग्रो] [18 प्र.] भगवन् ! वे (असंजी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च) जीव एक समय में कितने उत्पन्न होत हैं ? इत्यादि प्रश्न / 18 उ.] इस सम्बन्ध में पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले असंजी-तिर्यञ्च-पंचेन्द्रियों की जो वक्तव्यता कही है, तदनुसार यावत् भवादेश तक कहनी चाहिए। कालादेश से-जघन्य दो अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि-पृथक्त्व अधिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [प्रथम गमक] 16. बितियगमए एस चेव लद्धी, णवरं कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडीओ चहि अंतोमुत्तेहि अब्भहियाओ; एवतियं० / [बीयो गमयो] / [16] द्वितीय गमक में भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि कालादेश से-जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त, और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटि; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। द्वितीय गमक] 20. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं पलिनोवमस्स असंखेज्जतिभागट्ठितीएसु, उक्कोसेण वि पलिग्रोवमस्स असंखेज्जतिभागट्टितीएसु उवव० / 120] यदि वह (असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च), उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org