________________ 178] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अपेक्षा से समझनी चाहिए, क्योंकि उन्हीं में इतना अायुष्य हो सकता है और वे ही अपनी उत्कृष्ट आयु के समान देवायु का बन्ध करके उत्कृष्ट स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होते हैं। (5) तीन पल्योपम की जो स्थिति कही गई है, वह देवकुरु आदि के असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यञ्चों की अपेक्षा से समझनी चाहिए / तीन पल्योपम की आयु वाले भी नागकुमारों में देशोन दो पल्योपम की आयु बांधते हैं, क्योंकि वे अपनी आयु के बराबर अथवा उससे कम आयु तो बांध लेते हैं, परन्तु अधिक देवायु नहीं बांधते / / नागकुमार में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक में उपपातादि बोस द्वारों की प्ररूपरणा 11. जदि संखेज्जवासाउयसन्निपंचेंदिय० जाव किं पज्जत्तसंखेज्जवासाउय०, अपज्जत्तसंखे? गोयमा ! पज्जत्तसंखेज्जवासाउय०, नो अपज्जत्तसंखेज्जवासाउय० / जाव 11 प्र. भगवन् ! यदि वे (नागकुमार) संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यचों से आकर उत्पन्न होते हैं ? [11 उ.] गौतम ! वे पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्थञ्चों से प्राकर उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से नहीं। 12. पज्जत्तसंखेज्जवासाउय० जाव जे भविए णागकुमारेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं देसूणाई दो पलितोवमाई। एवं जहेव असुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स बत्तव्वया तहेव इह वि नवसु वि गमएसु, गवरं नागकुमारदिति संवेहं च जाणेज्जा / सेसं तं चेव / [1-- गमगा] / [12 प्र.] भगवन् ! यदि पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च, जो नागकुमारों में उत्पन्न होने योग्य हो, तो वह कितने काल की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होता है ? [12 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट देशोन दो पत्योपम की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होता है; इत्यादि जिस प्रकार असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार यहाँ नौ ही गमकों में कहनी चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि यहाँ नागकुमारों की स्थिति और संवेध जानना चाहिए / शेष सब पूर्ववत् जानना / [1-9 गमक] 1. (क) कहा है-दाहिण-'दिवड्ढपलियं दो देसूणुत्तरिल्लाणं' (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 823 (ग) भगवती. (हिन्दी विवेचन पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 3057 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org