________________ 224] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र होता है। शेष सब पूर्वोक्त प्रकार से जानना / भव की अपेक्षा से-जघन्य दो भव और उत्कृष्ट पाठ भव तथा काल की अपेक्षा से---जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करते हैं / (प्रथम गमक] 6. सो चेव जहन्नकाल द्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं अंतोमुत्तद्वितीएसु उववन्नो, उक्कोसेण वि अंतोमुत्तद्वितीएसु उववन्नो। प्रवसेसं तहेव, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं तहेव, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चहिं अंतोमुहुत्तेहि अन्भहियाई; एवतियं कालं० / [बोनो गमनो] / [6] यदि वह (रत्नप्रभा-नरयिक) जघन्य काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहुर्त की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में उत्पन्न होता है। शेष सब पूर्ववत् कहना / विशेष यह है कि काल की अपेक्षा से पूर्वोक्त अनुसार और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार सागरोपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [द्वितीय गमक] 7. एवं सेसा वि सत्त गमगा भाणियव्वा जहेव नेरइयउद्देसए सन्निपंचेंदिएहि समं रइयाणं / मज्झिमएसु य तिसु गमएसु पच्छिमएसु य तितु गमएसु ठितिनाणत्तं भवति / सेसं तं चेव / सव्वत्थ ठिति संवेहं च जाणेज्जा / [3-6 गमगा] / _[7] इसी प्रकार शेष सात गमक, नैरयिक-उद्देशक में संज्ञी पंचेन्द्रियों के साथ बतलाए हैं, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए / बीच के तीन गमकों (4-5-6) में तथा अन्तिम तीन गमकों (7-8-9) में स्थिति की विशेषता है / शेष सब पूर्ववत् जानना / सर्वत्र स्थिति और संवेध उपयोगपूर्वक जान लेना चाहिए। [गमक 3 से 1 तक] 8. सक्करप्पभापुढविनेरइए णं भंते ! जे भविए.? एवं जहा रयणप्पभाए नव गमगा तहेव सक्करप्पभाए वि, नवरं सरीरोगाहणा जहा प्रोगाहणसंठाणे; तिनि अन्नाणा नियम। ठिति-अणुबंधा पुव्वभणिया। एवं नव वि गमगा उवर्जु जिऊण भाणियन्वा / [8 प्र.] भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी का नैरयिक जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होने योग्य है (वह कितने काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है ? ) इत्यादि प्रश्न / . [8 उ.] जैसे रत्नप्रभा के सम्बन्ध में नौ गमक कहे हैं, वैसे यहाँ भी नौ गमक कहने चाहिए / विशेष यह है कि शरीर की अवगाहना, (प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें) अवगाहना-संस्थान-पद के अनुसार जानना / उनमें तीन ज्ञान और तीन अज्ञान नियम से होते हैं। स्थिति और अनुबन्ध पहले कहा गया है / इस प्रकार नौ ही गमक उपयोग-पूर्वक कहने चाहिए / 6. एवं जाव छट्ठपुढवी, नवरं ओगाहणा-लेस्सा-ठिति-अणुबंधा संवेहा य जाणियव्वा / [8] इसी प्रकार यावत् छठी नरक पृथ्वी तक जानना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ अवगाहना, लेश्या, स्थिति, अनुबन्ध और संवेध (यथायोग्य भिन्न-भिन्न) जानने चाहिए। 10. अहेसत्तमपुढविनेरइए णं भंते ! जे भविए• ? एवं चेव णव गमगा, नवरं ओगाहणा-लेस्सा-ठिति-अणुबंधा जाणियब्बा। संबहे भवाएसेणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org