________________ चौवीसवा शतक : उद्देशक 12] 1197 विवेचन—निष्कर्ष -- पृथ्वीकायिक जीव संज्ञी और असंज्ञी दोनों प्रकार के पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से तथा उनमें भी जलचरादि पाँचों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों से पाकर उत्पन्न होते हैं / ' पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होनेवाले असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक के उपपात-परिमारणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 26. असन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त० उक्कोसेणं बावीसवाससह / [26 प्र.] भगवन् ! असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव जो पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? [26 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्महुर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है। 30. ते णं भंते ! जीवा०? एवं जहेव बेइंदियस्स प्रोहियगमए लद्धी तहेव, नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जति०, उक्कोसेणं जोधणसहस्सं / पंच इंदिया। ठिती अणुवंधो जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी / सेसं तं चेव / भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवरगहणाई / कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुत्वकोडीओ अट्टासोतीए वाससहस्सेहि प्रभहियायो, एवतियं० / नवसु वि गमएसु कायसंवेहो भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। कालाएसेगं उवजुज्जिऊण भाणितन्वं, नवरं मज्झिमएसु तिसु गमएसु-जहेव बेइंदियस्स मझिल्लएसु तिसु गमएसु। पच्छिल्लएसु तिसु गमएसु जहा एयस्स चेव पढमगमए, नवरं ठिती अणुबंधो जहन्नेणं पुवकोडी, उक्कोसेण वि पुन्चकोडी। सेसं तहेव जाव नवमगमए जहन्नेणं पुवकोडी बावीसाए वाससहस्सेहिं अभहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडोप्रो अट्ठासीतीए वाससहस्सेहिं अन्भहियानो, एवतियं कालं से विज्जा० / [१-गमगा] / [30 प्र.] भगवन् ! वे जीव (असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक), एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / |30 उ.] गौतम ! द्वीन्द्रिय के औधिक गमक में जो वक्तव्यता कही है, वही वक्तव्यता यहाँ कहनी चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि इनके शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन की है। इनके पांचों इन्द्रियां होती हैं। स्थिति और अनुबन्ध जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष का है। शेष सब पूर्वोक्तानुसार जानना / भव की अपेक्षा से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट पाठ भव होते हैं। काल की अपेक्षा से जघन्य दो अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट 88 हजार वर्ष अधिक चार पूर्वकोटि वर्ष; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। 9. वियाहपण्यत्तिसुतं, भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 936 . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org