________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 12] [207 (1) किन्नर, (2) किम्पुरुष, (3) महोरग, (4) गान्धर्व, (5) यक्ष, (6) भूत (प्रेत आदि) (7) राक्षस, (8) पिशाच / ' (2) इनके नौ ही गमक स्थिति और कालादेश को छोड़ कर असुरकुमार के नौ ही गमकों के समान समझना चाहिए / पथ्वीकायिकों में उत्पन्न होनेवाले ज्योतिष्कदेवों में उपपात-परिमारणादि बोस द्वारों को प्ररूपणा 50. जति जोतिसियदेवेहितो उवव० कि चंदविमाणजोतिसियदेहितो उववज्जति जाव ताराबिमाणजोतिसियदेवेहितो उववज्जति ? / गोयमा ! चंदविमाण जाव ताराविमाण / [50 प्र.] भगवन् ! यदि वे (पृथ्वीकायिक) ज्योतिष्क देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे चन्द्रविमान-ज्योतिष्क देवों से आकर उत्पन्न होते हैं अथवा यावत् ताराविमान-ज्योतिष्क देवों से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [50 उ.] गौतम ! वे चन्द्रविमान-ज्योतिष्क देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं, यावत ताराविमान-ज्योतिष्कदेवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। 51. जोतिसियदेवे णं भंते ! भविए पुढविकाइए? लखी जहा असुरकुमाराणं / णवरं एगा तेउलेस्सा पन्नता। तिन्नि नाणा, तिनि अन्नाणा नियमं / ठिती जहन्नेणं अट्ठभागपलिग्रोवम, उक्कोसेणं पलिअोवमं वाससयसहस्समभहियं, एवं अणुबंधो वि। कालाएसेणं जहन्नेणं अट्ठभागपलिश्रोवमं अंतोमुहुत्तमम्भहियं, उक्कोसेणं पलिप्रोवमं वाससयसहस्सेणं बावीसाए वाससहस्सेहिं अमहियं, एवतियं० / एवं सेसा वि अट्ठ गमगा भाणियन्वा, नवरं ठिति कालाएसं च जागेज्जा। [51 प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्क देव जो पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने योग्य हैं, वे कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं ? [51 उ. (गौतम ! ) इनके विषय में उत्पत्ति-परिमाणादि की लब्धि प्राप्ति) असुरकुमारों की वक्तव्यता के समान जानना चाहिए / विशेषता यह है कि इनके एकमात्र तेजोलेश्या होती है / इनमें तीन ज्ञान और तीन अज्ञान नियम से होते हैं। इनकी स्थिति जघन्य पल्योपम के आठवें भाग की और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की होती है / अनुबन्ध भी इसी प्रकार जानना चाहिए / (संवेध) काल की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक पल्योपम का आठवाँ भाग और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम तथा एक लाख वर्ष, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। इसी प्रकार शेष पाठ गमक भी कहने चाहिए / विशेष यह है कि स्थिति और कालादेश (पूर्वापेक्षया भिन्न) समझने चाहिए। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणपुक्त), पृ. 941 62. बियाहपण्णत्तिसत्त, भा. 2 (मूलपाट-टिप्पणयुक्त), पृ. 941 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org