________________ पण्णरसमो : वाउकाइय-उद्देसओ पन्द्रहवाँ उद्देशक : वायुकायिक की उत्पत्ति प्रादि-सम्बन्धी वायुकायिकों में उत्पन्न होनेवाले दण्डकों में चौदहवें उद्देशक के अनुसार वक्तव्यतानिर्देश 1. वाउकाइया णं भंते ! कओहितो उववज्जति ? एवं जहेव तेउक्काइयउद्देसओ तहेव, नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // चउवीसइमे सते : पनरसमो उद्देसनो समत्तो // 24-15 / / [1 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक जीव, कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] तेजस्कायिक-उद्देशक के समान इसकी समग्र वक्तव्यता है। स्थिति और संवेध तेजस्कायिक से भिन्न समझना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर श्रीगौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-निष्कर्ष स्थिति और संवेध के अतिरिक्त वायुकायिक-सम्बन्धी समग्र वक्तव्य तेजस्कायिक-उद्देशक के समान कहना चाहिए। देवों से च्यव कर पाया हुआ जीव वायुकायिकों में उत्पन्न नहीं होता / वायुकायिक की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष की है। ॥चौवीसवाँ शतक : पन्द्रहवाँ उद्देशक समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org