________________ 198 [व्याख्याप्रज्ञाप्तसूत्र नो ही गमकों में कायसंवेध-भव को अपेक्षा से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट पाठ भव होते हैं / काल की अपेक्षा से कायसंवेध उपयोगपूर्वक कहना चाहिए। विशेष यह है कि तीनों (चौथेपाँच-छठे) गमकों में द्वीन्द्रिय के मध्य के तीनों गमकों के समान कहना चाहिए। पिछले तीन गमकों (सातवें-पाठवें-नौवें) का कथन प्रथम के तीन गमकों के समान समझना चाहिए। यह स्थिति। अनुबन्ध जघन्य तथा उत्कृष्ट पूर्वकोटि समझना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् जानना, यावत्-नौवें गमक में जघन्य पूर्वकोटि-अधिक 22,000 वर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि-अधिक 88,000 वर्ष; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। [गमक 1 से 1 तक] विवेचन-निष्कर्ष-पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले असंजी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों की स्थिति तथा नौ ही गमकों में जो विशेष अन्तर है, वह मूलपाठ में अंकित है। इसलिए स्पष्टीकरण की यावश्यकता नहीं है।' पृथ्वीकाय में उत्पन्न होनेवाले संज्ञो पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उपपात-परिमारणादि बीस द्वारों को प्ररूपणा 31. जदि सन्निपंचेवियतिरिक्खजोगिए कि संखेज्जवासाउय०, असंखेज्जवासाउय० ? गोयमा ! संखेज्जवासाउय०, नो असंखेज्जवासाउय० / [31 प्र. भगवन् ! यदि वे (पृथ्वीकायिक), संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे संख्यातवर्ष की आयुवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच से आकर उत्पन्न होते हैं या असंख्यातवर्ष की आयु वाले संज्ञी पं. ति. से ? 131 उ.] गौतम ! वे संख्यातवर्ष की आयु वाले संज्ञी पचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से नहीं / 32. जदि संखेज्जवासाउय० कि जलचरेहितो० ? सेसं जहा असण्णीणं जाव-- / 32 प्र.] यदि वे पृथ्वीकायिक संख्यातवर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या जलचरों से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 132 उ. यहाँ समग्र बक्तव्यता असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च योनिकों के समान जाननी चाहिए। यावत्-- 33. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उबवज्जति ? एवं जहा रयणप्पभाए उववज्जमासस्स सन्निस्स तहेव इह वि, नवरं प्रोगाहणा जहन्नेणं अंगलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं। सेसं तहेव जाव कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडोयो अटासोतीए वाससहस्सेहि अभहियाओ, एवतियं० / एवं संवेहो णवसु वि गमएसु जहा असण्णोणं तहेव निरवसेसं / लद्धी से प्रादिल्लएसु तिसु वि गमएसु 1. बियाहपण्णत्तिसुत्त, भा. 2 (मू. पा. टिप्पण), पृ. 936-937 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org