________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र नवमगमए कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई छहि मासेहि अहियाई, उधकोसेणं अट्ठासीति बाससहस्साई चउवीसाए मासेहिं अमहियाई, एवतिय० / [1-6 गमगा] / _ [26 प्र.] (भगवन् ! ) यदि वे पृथ्वीकायिक जीव चतुरिन्द्रिय जीवों से आकर उत्पन्न हों, तो? इत्यादि प्रश्न / 26 उ.] चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में भी इसी प्रकार / पूर्वोक्त त्रीन्द्रिय के समान) नौ गमक कहने चाहिए। विशेष यह है कि इन (कुछ) स्थानों में नानात्व कहना चाहिए-इनके शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट चार गाऊ की होती है / इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट छह माह की होती है। अनुबन्ध भी स्थिति के अनुसार होता है / इनके चार इन्द्रियाँ होती हैं। शेष सब पूर्ववत् जानना, यावत् नौवें गमक में कालादेश से जघन्य छह मास अधिक 22,000 वर्ष और उत्कृष्ट चौवीस मास अधिक 88,000 वर्ष; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [ गमक 1 से 8 तक] विवेचन–चतुरिन्द्रिय-उत्पत्तिविषयक विशेषता चतुरिन्द्रिय के नौ ही गमकों का कथन त्रीन्द्रिय के समान है। किन्तु संवेध में कुछ विशेषता है, वह मूल पाठ में स्पष्ट कर दी गई है / जिसका स्पष्टीकरण नहीं किया गया है, उसे स्वयं उपयोग लगाकर यथायोग्य जान लेनी चाहिए।' पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक की अपेक्षा पृथ्वीकायिक-उत्पत्तिनिरूपण 27. जइ पंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति कि सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति असन्निपंचेंदियतिरिक्खजो० ? गोयमा ! सन्निपंचेंदिय०, असन्निपंचेंदिय० / [27 प्र.] (भगवन् ! ) यदि वे (पृथ्वीकायिक) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं या असंजी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से ? [27 उ.] गौतम ! वे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं और असंही पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से भी उत्पन्न होते हैं / 28. जई असण्णिपंचिदिय० कि जलचरेहितो उवव० जाव कि पज्जत्तएहितो उववज्जंति अपज्जत्तएहितो उव.? गोयमा ! पज्जत्तरहितो वि उवव०, अपज्जत्तएहितो वि उववज्जति / [28 प्र.] भगवन् ! यदि वे (पृथ्वीकायिक) असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं तो क्या वे जल चरों से उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत् क्या पर्याप्तकों से या अपर्याप्तकों से ? [28 उ.] गौतम ! वे यावत् सभी के पर्याप्तकों से भी प्राते हैं और अपर्याप्तकों से भी। 1. भगवती. प्र. वत्ति, पत्र 829 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org