________________ 168] व्याख्याप्राप्तिसूत्र [11 उ.] (गौतम ! ) शेष सब कथन, यावत् भवादेश तक उसी प्रकार (पूर्ववत्) जानना / विशेष यह है कि उनकी अवगाहना जघन्य धनुषपृथक्त्व और उत्कृष्ट सातिरेक एक हजार धनुष / उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट सातिरेक पूर्वकोटि की जानना / अनुबन्ध भी इसी प्रकार है। काल की अपेक्षा से-जघन्य दस हजार वर्ष अधिक सातिरेक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट सातिरेक दो पूर्वकोटि, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / सू. 11 चतुर्थ गमक] 12. सो चेव अप्पणा जहन्नकाल द्वितीएस उववन्नो, एसा चेव वत्तव्वया, नवरं असुरकुमारद्विति संवेहं च जाणेज्जा / [पंचमो गमो] / [12] यदि वह जघन्य काल की स्थिति वाले असूकुमारों में उत्पन्न हो तो उसके विषय में यही वक्तव्यता कहनी चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ असुरकुमारों की स्थिति और संवेध के विषय में विचार कर स्वयं जान लेना / [सू. 12 पंचम गमक] 13. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं सातिरेगपुवकोडिआउएसु, उक्कोसेण वि सातिरेगपुवकोडिआउएसु उववज्जेज्जा। सेसं तं चेव, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं सातिरेगायो दो पुवकोडीओ, उक्कोसेण वि सातिरेगानो दो पुवकोडीओ, एवतियं कालं सेवेज्जा० / [छट्ठो गमत्रो]. [13] यदि वह उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट सातिरेक पूर्वकोटिवर्ष की आयु वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है / शेष सब पूर्वकथित वक्तव्यतानुसार जानना ! विशेष यह है कि काल की अपेक्षा से जघन्य और उत्कृष्ट सातिरेक (कुछ अधिक) दो पूर्वकोटिवर्ष; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 13 छठा गमक] 14. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीयो जानो, सो चेव पढमगमत्रो भाणियबो,नवरं ठिती जहन्नेणं तिन्नि पलिग्रोवमाइं, उक्कोसेग वि तिनि पलिनोवमाई। एवं अणुबंधो वि। कालाएसेणं जहन्नेणं तिन्नि पलिग्रोवमाइं दसहि वाससहस्सेहि अब्भहियाई, उक्कोसेणं छ पलितोवमाइं, एवतियं० [समत्तो गमत्रो]। [14] वही जीव स्वयं उत्कृष्टकाल की स्थिति वाला हो और असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो उसके लिये वही प्रथम गमक कहना चाहिए। विशेष यह है कि उसकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम है तथा उसका अनुबन्ध भी इसी प्रकार जानना / काल की अपेक्षा सेजघन्य दस हजार वर्ष अधिक तीन पल्योपम और उत्कृष्ट छह पल्योपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 14 सप्तम गमक 15. सो चेव जहन्नकाल द्वितीएस उववन्नो, एसा चैव बत्तन्वया, नवरं असुरकुमारद्विति संवेहं च जाणिज्जा / [अट्ठमो गमो] / [15] यदि वह (उत्कृष्ट स्थिति वाला संजी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जघन्य काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो उसके विषय में भी पूर्वोक्त वक्तव्यता जाननी चाहिए / विशेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org