________________ 148 [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र शर्कराप्रभा से तमःप्रभा नरक तक में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च के उपपात-परिपारगादि वीस द्वारों की प्ररूपरणा 77. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसणिपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए रइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं सागरोवमट्टितीएम, उक्कोसेणं तिसागरोवमट्टितोएसु उववज्जेज्जा। |77 प्र. भगवन् ! पर्याप्त-संख्येव वर्षायूष्क संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, जो शर्कराप्रभापृथ्वी में नरयिक रूप से उत्पन्न होने योग्य हो. वह कितने काल की स्थिति वाले ने रयिकों में उत्पन्न होता है ? |77 उ. गौतम ! बह जघन्य एक सागरोपम की स्थिति बाले और उत्कृष्ट तीन सागरोपम की स्थिति वाले ने रयिकों में उत्पन्न होता है। 78. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० ? एवं ज च्चेव रयणप्पभाए उववज्जतगस्स लद्धी सच्चेव निरवसेसा भाणियव्वा जाय भवादेसो त्ति / कालादेसेणं जहन्नेणं सागरोवमं अंतोमुत्तमम्भहियं, उक्कोसेणं बारस सागरोवमाई चहि पुग्यकोडोहिं अभहियाई; एवतियं जाव करेज्जा। [78 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [78 उ.] गौतम ! रत्नप्रभा नरक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की समग्र वक्तव्यता यहां भवादेश पर्यन्त कहनी चाहिए तथा काल की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त पौर उत्कृष्ट चार पूर्वकाटि अधिक बारह सागरोपम, इतने काल तक यावत गमनागमन करता है। 76. एवं रयणप्पभपुढविगमगसरिसा नव वि गमगा भाणियटया, नवरं सव्वगमएसु वि नेरइयद्विती-संवेहेसु सागरोवमा भाणितव्वा / [76] इस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी के गमक के समान नौ ही गमक जानने चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि सभी नरकों में नयिकों की स्थिति और संवेध के सम्बन्ध में ‘सागरोपम' कहने चाहिए। 80. एवं जाव छट्ठपुढवि ति, णवर नेरइयठिती जा जत्थ पुढवीए जहन्नुक्कोसिया सा तेणं वेव कमेणं चउग्गुणा कायव्वा, वालुयप्पभाए अट्ठावीस सागरोवमा चउग्गुणिया भवति, पंकप्पभाए चत्तालीस, धूमप्पभाए अट्ठसट्टि, तमाए अट्ठासीति / संघयणाई वालुयप्पभाए पंचविहसंधयणी, तं जहा-वइरोसभनाराय जाव खीलियासंघयणी। पंकप्पभाए चउविहसंघयणी / धूमप्पभाए तिविहसंघयणी / तमाए दुविहसंघयणी, तं जहा-वइरोसभनारायणी य उसभनारायसंघयणी य। सेसं तं चेव / 80 इसी प्रकार यावत् छठी नरकपृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए। परन्तु जिस नरकपृथ्वी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org