________________ चौवीसका शतक : रद्देशक 2] [165 4. ते णं भंते ! जीवा० ? एवं रयणप्पभागमगसरिसा नव वि गमा भाणियव्वा, नवरं जाहे अप्पणा जहन्नकाल द्वितीयो भवति साहे अज्झवसाणा पसत्था, नो अप्पसत्था तिसु वि गमएसु / अवसेसं तं चेव / [गमा 1-6] / [4 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? 4 उ.] (गौतम ! ) यहाँ रत्नप्रभापृथ्वी के गमकों के समान सभी नौ ही गमक कहने चाहिए। विशेष यह है कि यदि वह स्वयं जघन्यकाल की स्थिति वाला हो, तो तीनों गमकों में अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं, अप्रशस्त नहीं होते। शेष सब कथन पूर्ववत् जानना। [गमक 1 से 6 तक विवेचन-उत्कृष्ट स्थिति के समकक्ष मान-यहाँ पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च, जो असुरकुमारों में उत्पन्न होता है, उसकी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग बतलाई है, यह कालमान पूर्वकोटिरूप समझना चाहिए, क्योंकि सम्मूच्छिम तिर्यञ्च का उत्कृष्ट प्रायुध्य पूर्वकोटिपरिमाण होता है और वह अपने आयुष्य के समान हो उत्कृष्ट देवायु बांधता है / चूर्णिकार भी इसी तथ्य का समर्थन करते हैं 'उक्कोसेणं स तुल्लपुवकोडो पाउयत्तं णिवत्तेइ ण य सम्मुच्छिमो पुवकोडी-पाउयत्ताओ परो प्रथि।' अर्थात् समूच्छिम तिर्यञ्च का पायुष्य पूर्वकोटि से अधिक नहीं होता। इसलिये वह देवभव में भी उत्कृष्टत: पूर्वकोटि-परिणाम ही आयुष्य बांधता है, अधिक नहीं।' अध्यवसाय : प्रशस्त या अप्रशस्त ? –पर्याप्त असंज्ञी तिर्थञ्च पंचेन्द्रिय के चौथे, पाँचवें और छठे गमक में प्रशस्त अध्यवसाय होते हैं, अप्रशस्त अध्यवसाय नहीं / संख्येयवर्षायुष्क-असंख्येयवर्षायुष्क-संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक को असुरकुमारों में उपपात-प्ररूपरगा 5. जदि सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोगिएहितो उववज्जंति कि संखेज्जवासाउयसग्निः जाव उववज्जति, असंखेज्जवासाउय० जाव उववज्जंति? गोयमा ! संखेज्जवासाउय० जाव उववज्जंति, असंखेज्जवासाउय० जाव उववज्जति। [5 प्र.] भगवन ! यदि संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव असुरकुमारों में उत्पन्न हो तो क्या वह संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होता है, अथवा असंख्यात वर्ष की प्रायु वाले संज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीवों से आकर उत्पन्न होता है ? 5 उ.] गौतम ! वह संख्यात वर्ष और असंख्यात वर्ष की आयु वाले दोनों प्रकार के तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होता है / 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 820 2. वही, पत्र 820 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org