________________ 162] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वहाँ स्त्रीवेदी उत्पन्न नहीं होते। शेष समग्र कथन यावत् अनुवन्ध तक पूर्ववत जानना चाहिए / भव की अपेक्षा से—दो भव ग्रहण और काल की अपेक्षा से जघन्य बर्ष पृथक्त्व अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तैतीस सागरोपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 112-113 प्रथम गमक] 114. सो चेव जहन्नकालद्वितोएसु उववन्नो, एसा चेव वत्तव्वया, नवरं नेरइयट्ठिति संवेहं च जाणेज्जा। [सु० 114 बीनो गमो] / [114] यदि वही मनुष्य, जघन्य काल की स्थिति वाले सप्तमपृथ्वी-नारकों में उत्पन्न हो, तो भी यही (पूर्वोक्त)वक्तव्यता जाननी चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ नैरपिक की स्थिति और संबंध स्वयं विचार करके कहना चाहिए / [114 द्वितीय गमक 115. सो चेव उक्कोसकाल द्वितीएमु उववन्नो, एसा चेव वत्तव्वया, नवरं संवेहं जाणेज्जा। [सु० 115 तइयो गमो] / _ [115] यदि वही मनुष्य, उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले सप्तमपृथ्वी के नारकों में उत्पन्न हो, तो भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि इसका संवेध स्वयं जान लेना चाहिए। [115 तृतीय गमक] 116. सो चेव अप्पणा जहन्नकाल द्वितीयो जाओ, तस्स वि तिसु वि गमएसु एसा चेव वत्तव्वया, नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं रयणिपुहत्तं; उक्कोसेण वि रयणिपुहत्तं, ठिती जहन्नेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेण वि वासपुहत्तं; एवं अणुबंधो वि; संवेहो उखजुजिऊण भाणियन्वो / [सु०.११६ चउत्थ-पंचम-छट्ठगमा] / {116] यदि वही (पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्य) स्वयं जघन्यकाल की स्थिति वाला हो और सप्तमपृथ्वी के नारकों में उत्पन्न हो, तो तीनों गमकों (जघन्य स्थिति वाले संज्ञी मनुष्य की सप्तमनरकपृथ्वी के नारकों में उत्पत्ति-सम्बन्धी चतुर्थ गमक, इसी मनुष्य की जघन्य स्थिति वाले सप्तम नरक के नारकों में उत्पत्ति-सम्बन्धी पंचम गमक और इसी मनुष्य की उत्कृष्ट स्थिति वाले सप्तमपृथ्वी के नारकों में उत्पत्ति सम्बन्धी छठे गमक) में यही वक्तव्यता समझनी चाहिए। विशेष यह है कि उसके शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट रत्निपृथक्त्व होती है / उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व की होती है। अनुबन्ध भी इसी प्रकार होता है / संवेध के विषय में उपयोग पूर्वक कहना चाहिए / [सू. 116 चतुर्थ-पंचम-षष्ठ गमक] 117. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीयो जाओ, तस्स वि तिसु वि गमएसु एसा चेव वत्तब्वया, नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं पंच धणुसयाई, उक्कोसेण वि पंच धणुसयाई; ठिती जहन्नेणं पुवकोडी, उक्कोसेण वि पुवकोडी; एवं अणुबंधो वि। नवसु वि एएसु गमएसु नेरइयट्ठिति संवेहं च जाणेज्जा। सम्वत्थ भवग्गहणाई दोन्नि जाव नवमगमए कालादेसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुवकोडीए अमहियाई उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाइं पुधकोडीए अमहियाई, एवतियं कालं सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिराति:करेज्जा / [सु० 117 सत्तम-अट्ठम-नवमगमा] / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org