________________ 152] [অসমলিঙ্গ 88. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीयो जानो, जहन्नेणं बावीससागरोवमट्टितोएसु, उक्कोसेणं तेत्तीससागरोदमट्टितीएसु उववज्जेज्जा। [88] वही स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला (संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) हो और सप्तम नरकपृथ्वी में उत्पन्न हो तो जघन्य बाईस सागरोपम की अोर उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। 86. ते णं भंते ! ? अवसेसा स च्चेव सत्तमपुढविपढमगमगवत्तन्वया भाणियन्वा जाव भवादेसो ति, नवरं ठिती अणुबंधो य जहन्नेणं पुवकोडी, उक्कोसेण वि पुवकोडी। सेसं तं चैव। कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई दोहिं पुन्वकोडोहि अन्भहियाई, उक्कोसेणं छाढेि सागरोवमाई चहिं पुवकोडोहि अब्भहियाई, एवतियं जाव करेजा। [सु० 88-89 सत्तमो गमयो] / [86 प्र.] भगवन ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [86 उ.] इस विषय में समग्र वक्तव्यता सप्तम नरकपृथ्वी के गमक के समान, यावत् भवादेश तक कहनी चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति और अनुबन्ध जयन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष जानना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् / संवेध-काल की अपेक्षा से -जघन्य दो पूर्वको टि अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक 66 सागरोपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 88-86 सप्तम गमक] 60. सो चैव जहन्नकालद्वितीएसु उववन्नो, स च्चेव लद्धी, संवेहो वि तहेव सत्तमगमगसरिसो। [सु० 60 अट्ठमो गमओ] / [20] यदि वह (उत्कृष्ट स्थिति वाला संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जीव) जघन्य स्थिति वाले सप्तम नरकपृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो तो उसके सम्बन्ध में वही वक्तव्यता और वही संवेध सप्तम गमक के सदृश कहना चाहिए / [सू. 60 अष्टम गमक] 61. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, एसा चेव लद्धी जाव अणुबंधो त्ति / भवाएसेणं जहन्नेणं तिन्नि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई दोहिं पुवकोडोहिं अमहियाई, उक्कोसेणं छाट्ठि सागरोवमाई तिहिं पुश्वकोडोहि अब्भहियाई, एवतियं काल सेवेज्जा जाव करेज्जा। [सु० 61 नवमो गमयो] [1] यदि वह (उत्कृष्ट स्थिति बाला संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जीव) उत्कृष्ट स्थिति वाले सप्तम नरक के नैरयिकों में उत्पन्न हो तो, वही पूर्वोक्त वक्तव्यता, यावत् अनुबन्ध तक (जाननी चाहिए 1) संवेध—भव की अपेक्षा से जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट पांच भव, तथा काल की अपेक्षा से जघन्य दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक 66 सागरोपम इतने काल तक वह यावत् गमनागमन करता है / सू. 61 नौवाँ गमक | विवेचन- सप्तम नरक भूमि में उत्पत्ति प्रादि सम्बन्धी गमक--यहाँ रत्नप्रभापृथ्वी के 6 गमकों की तरह सारी बक्तव्यता समझनी चाहिए, विशेष अन्तर यह है कि सप्तम नरकपृथ्वी में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org