________________ चौदोसवां शतक : उद्देशक 1] [145 64. ते णं भंते ! एवं सो चेव चउत्थो गमो निरवसेसो भाणियम्बो जाव कालादेसेणं जहन्नेणं सागरोवर्म अंतोमुत्तमभहियं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चहिं अंतोमुत्तेहिं अन्भहियाई; एवतियं जाव करेज्जा / [सु० 68 66 छ8ो गमयो] / [69 प्र. भगवन ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 69 उ.] यहाँ पूर्ववत् सम्पूर्ण चतुर्थ गमक, यावत् ---काल की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहर्त्त अधिक सागरोपमोर उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार सागरोपम काल तक यावत् गमनागमन करता है : (यहाँ नक) कहना चाहिए। [68-69 छठा गमक] 70. उक्कोसकालद्वितीयपज्जत्तसंखेज्जवासा जाब तिरिक्खजोणिए णं भंते ! जाव जे भविए रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववज्जित्तए, से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेणं सागरोवमट्टितीएसु उववज्जेज्जा। 70 प्र.] भगवन ! उत्कृष्ट स्थिति वाला पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संजी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव जो रत्नप्रभापृथ्वी के नैरपिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल को स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? 170 उ.] गौतम ! वह जघन्यतः दस हजार वर्ष की और उत्कृष्टतः एक सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है / 71. ते णं भंते ! जीवा०? अवसेसो परिमाणादीपो भवादेसपज्जवसाणो एतेसि चेव पढ़मगमत्रो तवो, नवरं ठिसी जहन्नेणं पुवकोडी, उक्कोसेण वि पुवकोडो। एवं अणुबंधो वि / सेसं तं चेव / कालादेसेणं जहन्नेणं पुवकोडी दहि बाससहस्सेहिं अमहिया, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोबमाई चहिं पुश्वकोडोहिं अभहियाई; एवतियं कालं जाव करेज्जा / [सु० 70 71 सत्तमो गमो] / 15. | भगवन / वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 71 उ. गौतम ! परिमाण प्रादि से लेकर भबादेश तक की वक्तव्यता के लिए इनका (संज्ञी-पंचेन्द्रियत्तियंञ्चों का) प्रथम गमक जानना चाहिए / परन्तु विशेष यह है कि स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट पूर्व कोटि वर्ष की है। इसी प्रकार अनुबन्ध भी जानना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् समझना तथा काल की अपेक्षा से जघन्य दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटिवर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोगम --इतना काल यावत् गमनागमन करता है। सू. 70-71 सप्तम गमक] 72. सो चेव जहन्नकाल द्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेगं दसवाससहस्सद्वितोएसु, उक्कोसेण वि दसवाससहस्सद्वितीएसु उववज्जेज्जा। [7] यदि वह (उत्कृष्ट * संज्ञी-पंचेन्द्रियतियंञ्च) जघन्यस्थिति वाले (रत्नप्रभापृथ्वी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org