________________ 94] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र धान्यों के मूल रूप में उत्पन्न हो, तो इस रूप में वह कितने काल तक सेवन करता (रहता) है ? तथा कितने काल तक गति-पागनि (गमनागमन) करता रहता है ? [11 उ,] हे गौतम ! (इसका समाधान ग्यारहवें शतक के प्रथम) उत्पल-उद्देशक के अनुसार (जानना चाहिए। 12. एएणं अभिलावेणं जाव मणुस्सजीवे / [12] इस अभिलाप से (लेकर) यावत्-मनुष्य एवं सामान्य जीव के (अभिलाप तक कहना चाहिए)। 13. पाहारो जहा उप्पलुद्देसे (स० 11 उ० 1 सु० 21) / [13] आहार (सम्बन्धी निरूपण) भी (पूर्वोक्त) उत्पलोद्देशक के समान है / 14. ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वासपुहत्तं / [14] (इन जीवों की) स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट वर्ष-पृथक्त्व (दो वर्ष से ले कर नौ वर्ष तक) की है। 15. समुग्घायसमोहया य उध्वट्टणा य जहा उप्पलुद्द से (स० 11 उ०१ सु० 42-44) / [15] समुद्घात-समवहत (समुद्घात की प्राप्ति) और उद्वर्तना (पूर्वोक्त) उत्पलोद्देशक के अनुसार है / 16. अह भंते ! सव्वपाणा जाव सब्वसत्ता साली वीही जाव जवजवगमूलगजीवत्ताए उववन्नपूव्वा? हंता, गोयमा ! अति अदुवा प्रणंतखुत्तो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिः / // एगवीसतिमे सए : पढमे बग्गे पढमो उद्देसनो समत्तो // 21-1-1 // [16 प्र. भगवन् ! क्या सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व जीव और सर्व सत्त्व शालि, व्रीहि, यावत् जवजव मूल के जीव रूप में इससे पूर्व उत्पन्न हो चुके हैं ? / [16 उ.] हाँ, गौतम ! (वे इससे पूर्व मूल के जीवरूप में) अनेक बार अथवा अनन्त बार (उत्पन्न हो चुके हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन–प्रस्तुत प्रथम उद्देशक के 15 सूत्रों (सू. 2 से 16 तक) में शालि आदि के मूल के रूप में उत्पन्न होने वाले जीवों को उत्पत्ति, संख्या, आदि के विषय में प्रायः प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के प्रथम उत्पलोद्देशक के अतिदेश-पूर्वक प्ररूपणा की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org