________________ इक्कीसवां शतक : उद्देशक 1) [5 उ.] गौतम ! (इनके शरीर की अवगाहना) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट धनुष-गृथक्त्व (दो से नौ धनुष तक) की कही गई है। 6. ते णं भंते ! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधगा, प्रबंधगा ? तहेव जहा उप्पलुइसे (स० 11 उ० 1 सु०१)। [6 प्र.] भगवन् ! वे जीव ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धक हैं या प्रबन्धक ? [6 उ.] गौतम ! जिस प्रकार (ग्यारहवं शतक के प्रथम) उत्पल-उद्देशक (के सू. 6) में कहा गया है, उसके समान (जानना चाहिए)। 7. एवं वेदे वि, उदए वि, उदीरणाए वि। [7] इसी प्रकार (कों के) वेदन, उदय और उदीरणा के विषय में भो (जानना चाहिए। 8. ते णं भंते ! जीवा कि कण्हलेस्सा नील काउ० ? छन्वीसं भंगा। [8 प्र.] भगवन् ! वे जीव कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी या कापोत लेश्यी होते हैं ? [8 उ.] गौतम ! (यहाँ तीन लेश्या-सम्बन्धी) छब्बीस भंग कहने चाहिए। 6. दिट्ठी जाव इंदिया जहा उप्पलुद्देसे (स०११ उ० 1 सु०१५-३०)। [] दृष्टि से ले कर यावत् इन्द्रियों के विषय में (ग्यारहवें शतक के प्रथम) उत्पलोद्देशक के अनुसार (प्ररूपणा समझनी चाहिए।) 10. से णं भंते ! साली-वीही-गोधूम-[? / जव-] जवजवगमूलगजीवे कालमो केवचिरं होति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्तं,उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं / [10 प्र.] भगवन् ! शालि, बीहि, गेहूं, यावत् जौ, जवजव आदि, (इन सब धान्यों) के मूल का जीव कितने काल तक रहता है ? [10 उ.] गौतम ! (वह मूल का जीव) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक रहता है। 11. से णं भंते ! साली-वीही-गोधूम-[? + जब-] जवजवगमूलगजीवे पुढविजीवे पुणरवि सालो-वीही जाव जवजवगमूलगजीवे केवतियं काल सेवेज्जा ?, केवतियं कालं गतिराति करिज्जा? एवं जहा उप्पलुद्देसे (स० 11 उ०१ सु० 32) / [11 प्र.] भगवन् ! शालि, वीहि, गोधूम, जौ, (यावत्) जवजव (आदि धान्यों) के मूल का जीव, यदि पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न हो और फिर पुनः शालि, व्रीहि यावत् जौ, जवजव आदि 0+ [?] पाठान्तर--- जाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org