________________ पढमे 'आलय' वग्गे : दस उद्देसगा प्रथम पालक वर्ग : दश उद्देशक इक्कीसवें शतक के चतुर्थवर्गानुसार प्रथम पालुकवर्ग का निरूपण 3. रायगिहे जाब एवं वयासि.... 3] राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-- - 4. मह भंते ! पालुय-मूलग-सिंगबेर-हलिद्द-रुरु-कंडरिय-जारु-छोरबिरालि-किट्ठि-कुदुकण्हकडसु-मधुपयल इ-मसिगि-णेरुहा-सप्पसुगंधा-छिन्नरहा-बीयरुहाणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति० ? एवं मूलाईया दस उद्देसगा कायव्वा वंसवग्ग (स० 21 व० 4) सरिसा, नवरं परिमाणं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिनि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा, अणंता वा उववज्जति; अवहारो-गोयमा ! ते णं अणंता समये समये अवहीरमाणा अवहीरमाणा अणंताहि ओसप्पिणि-. उस्स प्पिणोहि एवतिकालेणं अवहीरंति, नो चेव णं अवहिया सिया; ठिती जहन्नेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / सेसं तं चेव / // तेवीसहमे सए : पढमो वग्गो समत्तो / / 23-1 // [4 प्र. भगवन् ! आल, मूला, अदरक (शृगबेर), हल्दी, रुरु, कंडरिक, जीरु, क्षीरविराली (क्षीर विदारीकन्द), किट्ठि, कुन्दु, कृष्णकडसु, मधु, पयलइ, मधुशृगी, निरुहा, सर्पसुगन्धा, छिन्नम्हा और बीजरुहा, इन सब (साधारण) वनस्पतियों के मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [4 उ.] गौतम ! यहाँ (इक्कीसवें शतक के चतुर्थ) वंशवर्ग के (दश उद्देशकों के) समान मूलादि दस उद्देशक कहने चाहिए। विशेष यह है कि इनके मूल के रूप में जघन्य एक, दो या तीन, और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात और अनन्त जीव पाकर उत्पन्न होते हैं। हे गौतम ! यदि एक-एक समय में, एक-एक जीव का अपहार किया जाए तो अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल तक किये जाने पर भी उनका अपहार नहीं हो सकता; (यद्यपि ऐसा किसी ने किया नहीं और कोई कर भी नहीं सकता); क्योंकि उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की होती है। शेष सब पूर्ववत् / // तेईसवें शतक का प्रथम वर्ग समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org