________________ {12 // गौमीसा शतक : प्राथमिक] संज्ञा, (12) कषाय, (13) इन्द्रिय, (14) समुद्घात, (15) वेदना, (16) वेद, (17) आयुष्य, (18) अध्यवसाय, (19) अनुबन्ध और (20) कायसंवेध / ' * चौवीस दण्डक इस प्रकार हैं---(१) सात नरक पृथ्वियों का एक दण्डक, (2-11) असुरकुमार आदि 10 भवनपति देवों के 10 दण्डक, (12-16) पांच स्थावरों के पांच दण्डक, (17-16) तीन विकलेन्द्रियों के तीन दण्डक, (20) तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय का एक दण्डक, (21) मनुष्य का एक दण्डक, (22) वाणव्यन्तर देव का एक दण्डक, (23) ज्योतिष्क देव का एक दण्डक और (24) वैमानिक देव का एक दण्डक / ' उपपात का अर्थ है- नैरयिकादि कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? परिमाण का अर्थ-नैरयिकादि में उत्पन्न होने वाले जीवों की संख्या। संहनन का अर्थ है--- शरीर की अस्थियों आदि की रचना। संस्थान प्राकृति, डीलडौल। उच्चत्व -शरीर की ऊँचाई। लेश्या-कृष्णादि द्रव्यों के सान्निध्य से प्रात्मा में उत्पन्न हुआ शुभाशुभ परिणाम / अथवा एक प्रकार की दीप्ति (ोरा)। दृष्टि का अर्थ है-दर्शन (सम्यक् या मिथ्या बुद्धि) ज्ञान, अज्ञान, इन्द्रिय वेदना आदि प्रसिद्ध हैं / योग-मन-वचन-काया का व्यापार (प्रवृत्ति)। उपयोग-ज्ञानदर्शनरूप व्यापार (या ध्यान)। संज्ञा-आहार आदि की अभिलाषा या बुद्धि / कषायक्रोध-मान-माया-लोभरूप वृत्ति, क्रोधादि का रस-विशेष / समुद्घात का अर्थ है-जिस समय प्रात्मा वेदना, कषाय आदि से परिणत होता है, उस समय वह अपने कतिपय प्रदेशों को शरीर से बाहर निकाल करके उन प्रदेशों से वेदनीय-कषायादि कर्मप्रदेशों की जो निर्जरा करता है, वह / वेद का अर्थ है-मोहनीयकर्म का एक भेद, जिसके उदय से मैथुन की इच्छा होती है। आयुष्य का अर्थ है--किसी पर्याय में जीवित रहने का कारणभूत कर्म / अध्यवसाय का अर्थ है, मा का शभाशभ परिणाम, विचार या मानसिक संकल्प / अनुबन्ध का अर्थ है-विवक्षित पर्याय से अविच्छिन्न रहना / कायसंवेध का अर्थ है--विवक्षित काय से कायान्तर (दूसरी काय) या तुल्यकाय में जाकर पुनः यथासम्भव उसी काया में पाना। निष्कर्ष यह है कि ये सब जीव के शरीर, मन, वचन आदि से सम्बद्ध एवं कर्मजन्य विविध परिणतियाँ हैं, जो जन्म मरण के साथ लगी हुई हैं। * कुल मिलाकर इसमें प्राध्यात्मिक तत्त्वज्ञान का सार भरा हुआ है, जिससे प्रेरणा लेकर मुमुक्षु भव्य साधक अपने प्रात्मकल्याण का पथ आसानी से पकड़ है। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, प्र. 904 से 968 2. दण्डकप्रकरण। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org