________________ चोवोसवां शतक : गद्देशक 1] [131 26. पज्जत्ताअसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए जहन्नकाल द्वितीएसु रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सट्टितीएसु, उक्कोसेण वि बसवाससहस्सद्वितीयेसु उवदज्जेज्जा। . |26 प्र. भगवन् ! पर्याप्त-असंजीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव, जो जघन्यकाल-स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हों, तो हे भगवन् ! वे कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं ? [26 उ.] गौतम ! वे जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट भी दस हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं। 27. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जति ? एवं स च्चेव वत्तव्यता निरवसेसा भाणियव्वा जाव अणुबंधो ति / [27 प्र.] भगवन् ! वे (असंज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक) जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? 27 उ.] गौतम ! पूर्वकथित समग्र वक्तव्यता, यावत् अनुबन्ध (सू. 5 से 24) तक इसी प्रकार (पूर्ववत्) कह देनी चाहिए। 28. से गं भंते ! पज्जत्ताप्रसन्त्रिपंचेंदियतिरिक्खजोणिए जहन्नकालद्वितीयरयणप्पभापुढविणेरइए, पुणरवि [जहण्णकाल०] पज्जत्तानसण्णि जाव गतिरागति करेज्जा ? गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई; कालाएसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं पुत्वकोडी दसहि वाससहसहि अब्भहिया, एवतियं कालं सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा / [सु० 26-28 बोओ गमो] / 28 प्र. भगवन् ! वे जीव पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तियंञ्चयोनिक हों, फिर जघन्य काल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हों और पुनः पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हों तो यावत् (कितना काल सेवन व्यतीत करते हैं और) कितने काल तक गतिप्रागति (गमनागमन) करते हैं ? [28 उ.] गौतम ! वे भवादेश (भव की अपेक्षा) से दो भव-ग्रहण करते हैं, और कालादेश (काल की अपेक्षा) से जघन्य अन्तमुहर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटि काल सेवन करते हैं और इतने काल तक गमनागमन करते हैं। [सू. 26 से 28 तक द्वितीय गमक] 26. पज्जत्ताप्रसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए गं भंते ! जे भविए उक्कोसकाल द्वितीयेसु रतणप्पभापुढविनेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! फेवतिकालद्वितीएसु उवयज्जेज्जा? ___गोयमा ! जहन्नेणं पलिग्रोवमस्स, प्रसंखेज्जतिभागद्वितीएसु उववज्जेज्जा, उक्कोसेण वि पलिप्रोवमस्स असंखेज्जतिभागट्टितीएसु उववज्जेज्जा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org