________________ और आस्रव-निरुधन से तरुणा का क्षय होता है / जैन दृष्टि से असद-आचरण नहीं करने वाला व्यक्ति भी जब तक प्रतिज्ञा नहीं लेता है तब तक वह उस असदाचरण से मुक्त नहीं हो पाता / परिस्थितिवश वह असदाचरण नहीं करता पर असदाचरण न करने की प्रतिज्ञा के प्रभाव में वह परिस्थितिवश असदाचरण कर सकता है। जब तक प्रतिज्ञा नहीं करता तब तक वह असदाचरण के दोष से मुक्त नहीं हो सकता। प्रत्याख्यान में असदाचरण से निवृत्त होने के लिये दृढ़-संकल्प की आवश्यकता है। भगवतीसूत्र शतक 7, उद्देशक 2 में प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की गई है। प्रायश्चित्त : एक चिन्तन साधक प्रतिपल-प्रतिक्षण जागरूक रहता है किन्तु जागरूक रहते पर भी और न चाहते हुए भी कभीकभी प्रमाद आदि के कारण स्खलनाएं हो जाती हैं / दोष लगना उतना बुरा नहीं है, जितना बुरा है दोष को दोष ने समझना और उसकी शुद्धि के लिये प्रस्तुत न होना। जो दोष लग जाते हैं, उन दोषों की शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त का विधान है। प्रायश्चित्त में सर्वप्रथम आलोचना है। जो भी स्खलना हो, उस स्खलना को बालक को तरह गुरु के समक्ष सरलता के साथ प्रस्तुत कर देना आलोचना है। भगवतीसूत्र शतक 25, उद्देशक 7 में इस सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण किया गया है, सर्वप्रथम गणधर गौतम ने पूछा कि भगवन् ! किन कारणों से साधना में स्खलनाएं होती हैं ? भगवान महावीर ने समाधान देते हुए कहा कि दस कारणों से साधना में स्खलनाएँ होती हैं। वे इस प्रकार हैं-१. दर्प (अहंकार से) 2. प्रमाद से 3. अनाभोग (अज्ञान से) 4. अातुरता 5. आपत्ति से 6. संकीर्णता 7. सहसाकार (आकस्मिक क्रिया से) 8. भय से 9. प्रद्वेष (क्रोध आदि कषाय से) 10. वि परीक्षा करने से)। इन दस कारणों से स्खलना होती है। स्खलना होने पर उन स्खलनाओं के परिष्कार के लिये साधक गुरु के समक्ष पहुँचता है पर दोष को प्रकट करते समय उन दोषों को इस प्रकार प्रकट करना जिससे गुरुजन मूके कम प्रायश्चित्त दें, यह दोष है / पालोचना के दस दोष प्रस्तुत पागम में हैं तथा अन्य स्थलों पर भी उन दस दोषों का निरूपण हुआ है। वे दोष इस प्रकार हैं-१. गुरु को यदि मैंने प्रसन्न कर लिया तो वे मुझे कम प्रायश्चित्त देंगे अत: उनकी सेवा कर उनके अन्तर्मानस को प्रसन्न कर फिर आलोचना करना। 2. बहुत अल्प अपराध को बताना जिससे कि कम प्रायश्चित्त मिले। 3. जो अपराध आचार्य प्रादि ने देखा हो उसी की आलोचना करना। 4. केवल बड़े अतिचारों की ही पालोचना करना / 5. केवल सूक्ष्म दोषों की ही मालोचना करना जिससे कि आचार्य को यह आत्मविश्वास हो जाये कि यह इतनी सूक्ष्म बातों की आलोचना कर रहा है तो स्थल दोषों की तो की ही होगी / 6. इस प्रकार अालोचना करना जिससे कि याचार्य सुन न सके / 7. दूसरों को सुनाने के लिये जोर-जोर से आलोचना करना / 8. एक ही दोष की पुनः-पुन: आलोचना करना / 9. जिनके सामने आलोचना की जाय वह अगीतार्थ हों। 10. उस दोष की आलोचना की जाय जिस दोष का सेवन उस आचार्य ने कर रखा हो-ये दस आलोचना के दोष हैं / पालोचना करने वाले के दस गुण भी बताए गये हैं तथा जिस प्राचार्य या गुरु के सामने पालोचना करनी हो उनके पाठ गुण भी पागम में प्रतिपादित हैं। वर्तमान युग में आलोचना शब्द अन्य अर्थ में व्यवहत हैकिसी को नुक्ता-चीनी करना, टीका-टिप्पणी करना या किसी के गुण-दोष की चर्चा करना / पर प्रस्तुत प्रागम में जो शब्द आया है, वह दूसरों के गुण-दोषों के सम्बन्ध में नहीं है पर अात्मनिन्दा के अर्थ में है। प्रात्मनिन्दा करना सरल नहीं, कठिन और कठिनतर है। परनिन्दा करना, दूसरे के दोषों को निहारता सरल है। प्रात्म [42] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org