________________ बीसवां शतक : उद्देशक } 16. दंसणमोहणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स कतिविधे बंधे पन्नते ? एवं चेव / {16 प्र.] भगवन् ! दर्शनमोहनीय कर्म का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? 1 16 उ.] गौतम ! (वह भी) पूर्ववत् (तीन प्रकार का है / ) 17. [एवं] निरंतरं जाव वेमाणियाणं। [17] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त अन्तर-रहित (बन्ध-कथन करना चाहिए / ) 16. एवं चरितमोहणिज्जस्स वि जाव वेमाणियाणं। [18] इसी प्रकार चारित्रमोहनीय के बन्ध के विषय में भी यावत् वैमानिकों तक (जानना चाहिए।) विवेचन--स्त्रीवेद प्रादि के त्रिविध बन्ध का आशय-वेद के त्रिविध बन्ध का यहाँ आशय है-स्त्रीवेद, पुरुषवेद या नपुसकवेद के उदय होने पर जो बन्ध हो, उदयप्राप्त स्त्री वेदादि का बन्ध / दर्शनमोहनीय-चारित्रमोहनीय के बन्ध के विषय में स्पष्टीकरण- केवल दर्शन-चारित्रमोहनीय के जो बन्धत्रय बताए हैं वे जीव की अपेक्षा से बताए हैं, क्योंकि जीव के साथ कर्मपुद्गलों (दर्शनचारित्रमोहनीय कर्म के पुद्गलों) का सम्बन्ध होने पर ही बन्ध होता है / शरीर, संज्ञा, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, प्रज्ञान एवं ज्ञानाज्ञानविषयों में विविधबन्धप्ररूपरणा 16. एवं एएणं कमेणं पोरालियसरीरस्स जाव कम्मगसरीरस्स, आहार-सण्णाए जाव परिग्गहसग्णाए, कण्हलेसाए जाव सुक्कलेसाए, सम्मट्ठिीए मिच्छादिट्ठीए सम्मामिच्छादिट्टीए, श्राभिणिबोहियणाणस्स जाव केवलनाणस्स, मतिअन्नाणस्स सुयअन्नाणस्य विभंगनाणस्स / [16] इस प्रकार इसो क्रम से औदारिक शरीर, यावत् कार्मण शरीर के ग्राहारसंज्ञा यावत् परिग्रहसंज्ञा के, कृष्णले श्या यावत् शुक्ललेश्या के, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि एवं सम्यमिथ्यादृष्टि के, प्राभिनिबोधिकज्ञान यावत् केवलज्ञान के, मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान तथा विभंगज्ञान के पूर्ववत् (त्रिविधबन्ध समझना चाहिए।) 20. एवं प्राभिनिबोहियनाणविसयस्स णं भंते ! कतिविधे बंधे पन्नत्ते ? जाव केवलनाणविसयरस, मतिमन्नाणविसयस्स, सुयअन्नाणविसयस्स, विभगनाणविसयरस; एएसि सन्वेसि पयाणं तिविधे बंधे पन्नत्ते / [20 प्र.] भगवन् ! इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञान के विषय का बन्ध कितने प्रकार का है ? [20 उ.] गौतम ! आभिनिबोधिकज्ञान के विषय से लेकर यावत केवलज्ञान के विषय, मति. अज्ञान के विषय, श्रुत-अज्ञान के विषय और विभंगज्ञान के विषय, इन सब पदों के तीन-तीन प्रकार का बन्ध कहा गया है। 21. सम्वेते चउवीसं दंडगा भाणियन्वा, नवरं जाणियव्वं जस्स जं अत्थि; जाव बेमाणियाणं भंते ! विभंगणाणविसयस्स कतिविधे बंधे पन्नत्ते ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org