________________ बोसो शतक : उद्देशक 10] [75 20. नेरइया णं भंते ! कि आयप्पयोगेणं उववज्जंति, परप्पयोगेणं उववज्जति ? गोयमा ! प्रायप्पयोगेणं उववज्जति, नो परप्पयोगेणं उववज्जंति / [20 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव अात्मप्रयोग से उत्पन्न होते है, अथवा परप्रयोग से उत्पन्न होते हैं ? 20 उ.] गौतम ! वे प्रात्मप्रयोग से उत्पन्न होते है, पर प्रयोग से उत्पन्न नहीं होते। 21. एवं जाव वेमाणिया। [21] इसी प्रकार यावत् वैमानिक-पर्यन्त (कहना चाहिए / 22. एवं उन्वट्टणादंडओ वि। [22] इसी प्रकार उद्वर्त्तना-दण्डक भी (कहना चाहिए)। विवेचन-प्रस्तुत 16 सूत्रों (7 से 22 तक) में नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के उत्पत्ति और उद्वर्तना (मृत्यु) के विषय में प्रात्मोपक्रम-परोपक्रम-निरूपक्रम, आत्मऋद्धि-परऋद्धि, प्रात्मकर्म-पर कर्म, आत्मप्रयोग-परप्रयोग आदि विभिन्न पहलयों से चर्चा की गई है।' आत्मोपक्रम-परोपक्रम-निरुपक्रम का स्वरूप प्रात्मोपक्रम-व्यवहार दृष्टि से आयुष्य को स्वयमेव घटा देना / यथा---श्रेणिक नरेश / परोपकम-~अन्य के द्वारा श्रायुष्य का घटाया जाना अर्थात् अन्य के द्वारा प्रायुष्य घटाने से मरना / यथा-कोणिक सम्राट् / निरुपक्रम-उपक्रम के अभाव में मरना। यथाकालसौकरिक / प्रातिडिए-पात्मऋद्धि अर्थात् अपने सामर्थ्य से, दूसरे (ईश्वरादि) के सामर्थ्य से नहीं। प्रायकम्मुणा-प्रात्मकर्म से अर्थात् स्वकृत प्रायुष्य प्रादि कर्मों से। प्रायपोगेण-अपने ही व्यापार से / ' चौवीस दण्डकों और सिद्धों में कति-अकति-प्रवक्तव्य-संचित पदों का यथायोग्य निरूपण 23. [1] नेरइया णं भते ! कि कतिसंचिता, अकतिसंचिता, अन्चत्तम्वगसंचिता? गोयमा ! नेरइया कतिसंचिया वि, अकतिसंचिता वि, अवत्तब्वगसंचिता वि। [23-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक कतिसंचित हैं, अकतिसंचित हैं अथवा प्रवक्तव्यसंचित हैं ? [23-1 उ.] गौतम ! नैरयिक कतिसंचित भी हैं, अकतिसंचित भी हैं और अवक्तव्यसंचित [2] से केणठेणं जाव अवत्तम्बगसंचिता वि? गोयमा ! जे गं नेरइया संखेज्जएणं पवेसणएणं पविसंति ते गं नेरइया कतिसंचिता, जे गं 1. वियाहाण्णतिसुत्तं भा. 2, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 882-883 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 796 3. वही, पत्र 796 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org