________________ व्याख्याप्रशप्तिसूत्र नेरइया असंखेज्जएणं पवेसणएणं पविसंति ते गं नेरइया अतिसंचिया, जे गं नेरइया एक्कएणं पवेसणएणं पविसंति ते गं नेरइया प्रवत्तव्वगसंचिता; सेतेणठेणं गोयमा ! जाय अवत्तव्यगसंचिता वि। [23-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा गया कि (नरयिक कतिसंचित भी हैं) यावत् अवक्तव्यसंचित भी हैं ? [23-2 उ.] गौतम ! जो नै रयिक (नरकगति में एक साथ) संख्यात प्रवेश करते (उत्पन्न होते) हैं, वे कतिसंचित हैं, जो नैरपिक (एक साथ) असंख्यात प्रवेश करते हैं, वे अकतिसंचित हैं और जो नै रयिक एक-एक (करके) प्रवेश करते हैं, वे अवक्तव्यसंचित हैं। हे गौतम ! इसी कारण कहा गया है कि (नै रयिक कतिसंचित भी हैं,) यावत् अवक्तव्यसंचित भी हैं। 24. एवं जाव थणियकुमारा। [24] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) यावत् स्तनितकुमारों तक (के विषय में कहना चाहिए। 25. [1] पुढविकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! पुढ विकाइया तो कतिसंचिता, अतिसंचिता, नो प्रवत्तव्यगसंचिता। [25-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक कतिसंचित हैं, इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ? |25-1 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव कतिसंचित भी नहीं और प्रवक्तव्यसंचित भी नहीं किन्तु अकतिसंचित हैं। [2] से केणठेणं जाव नो प्रवत्तम्वगसंचिता? गोयमा ! पुढविकाइया असंखेज्जएणं पवेसणएणं पविसंति; सेतेणठेणं जाव नो प्रवत्तध्वगसंचिता। [25.2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि (पृथ्वीकायिक जीव) यावत् प्रवक्तव्यसंचित नहीं हैं ? [25-2 उ.| गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव एक साथ असंख्य प्रवेशनक से प्रवेश करते (उत्पन्न होते हैं. इसलिए कहा जाता है कि वे अकतिसंचित हैं, किन्तु कतिसंचित नहीं हैं और प्रवक्तव्यसंचित भी नहीं हैं। 26. एवं जाव वणस्सतिकाइय / [26] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक (जानना चाहिए)। 27. बेदिया जाव बेमाणिया जहा नेरइया / [27] द्वीन्द्रियों से लेकर यावत् वैमानिक-पर्यन्त नैरयिकों के समान (कहना चाहिए)। 28. [1] सिद्धाणं पुच्छा। गोयमा! सिद्धा कतिसंचिता. नो प्रकतिसंचिता, अवसव्वगसंचिता वि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org