________________ बीमवां शतक : उद्देशक 10] [77 [28-1 प्र.] भगवन् ! सिद्ध कतिसंचित हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [28-1 उ.] गौतम ! सिद्ध कतिसंचित और प्रवक्तव्यसंचित हैं, किन्तु अकतिसंचित नहीं हैं। [2] से केणठेणं जाव अवतव्वगसंचिता वि ? गोयमा! जे णं सिद्धा संखेज्जएणं पवेसणएणं पविसंति ते ण सिद्धा कतिसंचिता, जे गं सिद्धा एक्कएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा प्रवत्तव्वगसंचिता; सेतेणठेणं जाव अवत्तव्वगसंचिता वि / [28-2 प्र.) भगवन् ! यह किस कारण से कहा जाता है कि सिद्ध कतिसंचित और प्रवक्तव्यसंचित भी हैं, किन्तु अतिसंचित नहीं हैं ? 282 उ.] गौतम ! जो सिद्ध संख्यातप्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, वे कतिसंचित हैं और जो सिद्ध एक-एक करके प्रवेश करते हैं, वे प्रवक्तव्यसंचित हैं। इसीलिए कहा गया है कि सिद्ध यावत् प्रवक्तव्यसंचित भी हैं। विवेचन--कतिसंचित प्रादि की परिभाषा--जो जीव दूसरी जाति में से पाकर एक समय में एक साथ संख्यात उत्पन्न होते हैं, वे कतिसंचित कहलाते हैं। अर्थात् दो से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक की संख्या वालों को यहाँ कतिसंचित (संख्यात) कहा गया है / जो एक समय में एक साथ असंख्यात उत्पन्न होते हैं, (जिनकी संख्या न की जा सके) उन्हें प्रकतिसंचित (असंख्यात) कहते हैं और जिसे न संख्यात कहा जा सकता हो, न असंख्यात, किन्तु एक समय में सिर्फ एक जीव उत्पन्न हो, उसे प्रवक्तव्यसंचित कहते हैं।' फलितार्थ---पृथ्वीकायादि पांच स्थावरों और सिद्धों को छोड़कर शेष समस्त जीव तीनों ही प्रकार के हैं। जैसे-नरयिक जीव एक-एक करके भी उत्पन्न होते हैं, दो से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक संख्यात भी उत्पन्न होते हैं और असंख्यात भी उत्पन्न होते हैं / पृथ्वीकायादि पांच स्थावर अकतिसंचित हैं, क्योंकि वे एक समय में एक साथ एक, दो से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक नहीं, किन्तु असंख्यात उत्पन्न होते हैं / यद्यपि वनस्पतिकायिक जीव एक साथ एक समय में अनन्त उत्पन्न होते हैं, किन्तु वे अनन्त तो स्वजातीय-वनस्पतिजीव ही वनस्पति (स्व) जाति में उत्पन्न होते हैं, विजातीय जीवों में से पाकर वनस्पतिकायिक के रूप में उत्पन्न होने वाले जीव तो असंख्यात ही होते हैं / इसी की यहां विवक्षा है। सिद्ध भगवान अतिसंचित नहीं हैं, क्योंकि मोक्ष जाने वाले जीव एक समय में एक से लेकर संख्यात (108 तक) ही होते हैं। असंख्यात जीव एक साथ सिद्ध नहीं होते। जब एक जीव सिद्ध होता है, तब वह प्रवक्तव्यसंचित कहलाता है किन्तु जब दो से लेकर 108 जीव तक सिद्ध होते हैं, तब वे 'कतिसंचित' कहलाते हैं। 1. (क) भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 799 (ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचदजी) भा. 6, पृ. 2925 2. (क) वही, पृ. 2925 (ख) भगवती. म. वृत्ति, पत्र 799 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org