________________ 56] [व्याख्या प्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! तिविधे बंधे पन्नते, तं जहा-जीवप्पयोगबंधे अणंतरबंधे परंपरबंधे। सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / // वीसइमे सए : सत्तमो उद्देसनो समत्तो // 20-7 // [21] इन सब पदों का चौवीस दण्डकों के विषय में (बन्ध-विषयक) कथन करना चाहिए। इतना विशेष है कि जिसके जो हो, वही जानना चाहिए / यावत्-(निम्नोक्त प्रश्नोत्तर तक / ) [प्र.] भगवन् ! वैमानिकों के विभंगज्ञान-विषय का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (उनके इसका) बन्ध तीन प्रकार का कहा गया है। यथा-जीवप्रयोगबन्ध, अनन्तरबन्ध और परम्परबन्ध / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है ;' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन---दष्टि, ज्ञान प्रादि के साथ बन्ध कैसे ?-यह तो पहले कहा जा चुका है कि आत्मा के साथ कर्मों के सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं, परन्तु यहाँ यदि कर्मपुद्गलों या अन्य पुदगलों का आत्मा के साथ सम्बन्ध माना जाए तो औदारिकादि शरीर, अष्टविध कर्मपुद्गल, आहारादि संज्ञाजनक कर्म और कृष्णादि लेश्याओं के पुद्गलों का बन्ध तो घटित हो सकता है, परन्तु दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान और तविषयक बन्ध कैसे सम्भव हो सकता है, क्योंकि ये सब अपौद्गलिक (आत्मिक) हैं ? / इसका समाधान यह है कि यहाँ बन्ध शब्द से केवल कर्मपूदगलों का बन्ध ही विवक्षित नहीं है, अपितु सम्बन्धमात्र को यहाँ बन्ध्र माना गया है और ऐसा बन्ध दृष्टि आदि धर्मों के साथ जीव का है ही, फिर बन्ध जीव के वीर्य से जनित होने के कारण उनके लिए जीवप्रयोगबन्ध आदि का व्यपदेश किया गया है। ज्ञेय के साथ ज्ञान के सम्बन्ध की विवक्षा के कारण प्राभिनिबोधिकज्ञान के विषय आदि के भी त्रिविध बन्ध घटित हो जाते हैं।' पचपन बोलों में से किसमें कितने ?--8 कर्मप्रकृति, 8 कर्मोदय, 3 वेद, 1 दर्शनमोहनीय, 1 चारित्रमोहनीय, 5 शरीर, 4 संज्ञा, 6 लेश्या, 3 दृष्टि, 5 ज्ञान, 3 अज्ञान और 8 ज्ञान-प्रज्ञान के विषय. यों कल 55 बोल होते हैं। नारकों में 44 बोल पाए जाते हैं (उपर्युक्त 55 में से 2 वेद, 2 शरीर, 3 लेश्या, 2 ज्ञान तथा 2 प्रज्ञान के विषय-ये 11 बोल कम हए)। भवनपति और बाणव्यन्तर देवों में 46 बोल, उपयुक्त 44 में से एक नपुसंक वेद कम तथा 2 वेद और 1 लेश्या अधिक)। ज्योतिष्क देवों में 43 बोल (उपर्युक्त 46 में से 3 लेश्या कम), वैमानिक देवों में 45 बोल (उपयुक्त 43 में दो लेश्याएँ अधिक) / पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय में 35 बोल (8 कर्म, 8 कर्मोदय, 1 वेद, 1 दर्शनमोह, 1 चारित्रमोह, 3 शरीर, 4 संज्ञा, 4 लेश्या, 1 दृष्टि, 2 अज्ञान, 2 अज्ञान के विषय, यों कुल 35) / अग्निकाय में 34 बोल(उपर्युक्त 35 में से 1 लेश्या कम) / वायुकाय में 35 बोल (उपर्युक्त 34 में 1 शरीर बढ़ा)। तीन विकलेन्द्रिय में 36 बोल, (उपर्युक्त 34 में 1 दृष्टि, 2 ज्ञान और दो ज्ञान के विषय बढ़े)। तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय में 50 बोल, (55 में से 1 शरीर, 2 ज्ञान, 2 ज्ञान के विषय 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 721, (ख) भगवती. खण्ड 4 (पं भगवानदास दोशी), पृ. 115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org