________________ से दो प्रकार का है।' पुनः जिज्ञासा उभरी-'अजीव द्रव्य संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ?' समाधान दिया गया---'वे अनन्त हैं, चूंकि परमाण पुद्गल अनन्त हैं, द्विप्रदेशी स्कन्ध अनन्त हैं यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध अनन्त हैं। उसी तरह जीव द्रव्य के सम्बन्ध में भी गौतम ने पृच्छा की कि वह संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? समाधान दिया गया--जीव अनन्त हैं, क्योंकि नै रयिक, चार स्थावर, तीन विकले न्द्रिय, तिर्यच पंचेन्द्रिय, असंशो मनुथ्य तथा देव ये सभी प्रत्येक पृथक-पृथक असंख्यात हैं। संज्ञी मनुष्य संख्यात हैं। वनस्पतिकायिक जीव और सिद्ध अनन्त हैं। अतः समस्त जीव द्रव्य की अपेक्षा से अनन्त हैं। इसी प्रकार भगवती सूत्र शतक 14, उद्देशक 4 में जीवपरिणाम और अजीवपरिणाम के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है। शतक 17, उद्देशक 2 में जीव और जीवात्मा ये दोनों पृथक नहीं हैं, ऐसा स्पष्ट किया गया है, शतक 7, उद्देशक 8 में हाथी और कुंथा दोनों की काया में अन्तर है तो क्या उनके जीव समान है या असमान है ? इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए भगवान् ने फरमाया कि दोनों में जीय समान है, जैसे दीपक का प्रकाश स्थान के अनुसार छोटा और बड़ा होता है वैसे ही शरीर के अनुसार प्रात्मप्रदेश संकुचित और विस्तृत होते हैं। शतक 1, उद्देशक 2 में जीव स्वयंकृत कर्म का वेदन करते हैं या परकृत कर्म का वेदन करते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने बतलाया कि जीव स्वकृत कर्म का ही वेदन करता है, परकृत कर्म का नहीं / जैन आगमसाहित्य का गहराई से पर्यवेक्षण करने पर सहज परिज्ञात होता है कि उसने अद्वैतवादियों की भांति जगत को वस्तु अवस्तु अर्थात् माया में विभक्त नहीं किया है अपितु यह प्रतिपादित किया है कि संसार की प्रत्येक वस्तु में स्वभाव और विभाव सन्निहित हैं। वस्तु का स्वभाव वह है जो परनिरपेक्ष हो और विभाव वह है जो परसापेक्ष हो / आत्मा का चैतन्य, ज्ञान, सुख प्रभति का जो मूल रूप है वह उसका स्वभाव है और अजीब का स्वभाव है जड़ता। आत्मा की मनुष्य , देव आदि गति रूप जो स्थिति है वह विभाव दशा है। स्वभाव और विभाव दोनो अपनेआप में सत्य हैं। हाँ, तविषयक हमारा ज्ञान मिथ्या हो सकता है, लेकिन वह भी तब जब हम स्वभाव को विभाव समझें या विभाव को स्वभाव / तत में अतत का ज्ञान होने पर ही ज्ञान में मिथ्यात्व को संभावना रहती है / 262 विज्ञानवादी बौद्धों का यह मन्तव्य है कि प्रत्यक्ष ज्ञान ही वस्तुग्राहक और साक्षात्कारात्मक है और उसके अतिरिक्त जितना की ज्ञान है वह अवस्तुग्राहक, भ्रामक, अस्पष्ट और प्रसाक्षात्कारात्मक है / जवकि जैन आगमसाहित्य में प्रत्यक्ष ज्ञान उसे कहा है जो इन्द्रियनिरपेक्ष हो और आत्मसापेक्ष हो तथा साक्षात्कारात्मक हो / परोक्ष उसे कहा है जो ज्ञान इन्द्रिय और मनसापेक्ष हो तथा असाक्षात्कारात्मक हो। प्रत्यक्षज्ञान सही स्वभाव और विभाव का सही परिज्ञान हो सकता है। जो ज्ञान इन्द्रियसापेक्ष है उससे वस्तु के स्वभाव और विभाव का स्पष्ट और सही परिज्ञान नहीं होता। पर इसका यह तात्पर्य नहीं कि इन्द्रियसापेक्ष ज्ञान भ्रम है / विज्ञानवादी वौद्ध परोक्ष ज्ञान को अवस्तुग्राहक होने के कारण भ्रम मानते हैं पर जैनदर्शन ऐसा नहीं मानता। उसका यह अभिमत है कि विभाव वस्तु का परिणाम है / यह वस्तु का एक रूप है / अतः उसके ग्राहकज्ञान को हम भ्रम नहीं कह सकते। जैन आगमसाहित्य में ज्ञान के सम्बन्ध में यत्र-तत्र विस्तार से निरूपण किया गया है। ज्ञान के विविध भेद-प्रभेदों पर भी विस्तार से प्रकाश डाला है। आगमयुग के पश्चात् जैनदार्शनिक मनीषी भी ज्ञान के सम्बन्ध में चिन्तन करते रहे हैं। विस्तारभय से हम उस चिन्तन को यहाँ प्रस्तुत न कर यह बताना चाहेंगे कि ज्ञान प्रात्मा का निज स्वरूप है, ज्ञान एक ऐसा गुण है जिसके बिना आत्मा आत्मा नहीं रहता। निगोद अवस्था में भी, जहाँ यात्मा 292. प्रागमयुग का जैनदर्शन पृ. 127-128, पं. दलसुखमालवणिया [2] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org